ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 139
From जैनकोष
अधुना सामायिकगुणसम्पन्नत्वं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह --
चतुरावर्तत्रितय-श्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:
सामयिको द्विनिषद्य-स्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥139॥
टीका:
सामयिक: समयेन प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण चरतीति सामयिकगुणोपेत: । किंविशिष्ट: ? चतुरावर्तत्रितय: चतुरो वारानावर्तत्रितयं यस्य । एकैकस्य हि कायोत्सर्ग
सामायिक प्रतिमा
चतुरावर्तत्रितय-श्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:
सामयिको द्विनिषद्य-स्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥139॥
टीकार्थ:
सामायिक का लक्षण पहले बता चुके हैं । उस प्रकार जो आचरण करता है, वह सामायिक गुण सहित कहलाता है । यहाँ पर सामायिक प्रतिमा का लक्षण बतलाते हुए उसकी विधि का भी निर्देश किया गया है । सामायिक करने वाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्ग के बाद चार बार तीन-तीन आवर्त करता है । अर्थात् एक कायोत्सर्ग विधान में 'णमो अरहंताणं' इस आद्य सामायिक दण्डक और 'थोस्सामि हं' इस अन्तिम स्तव दण्डक के तीन-तीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है । सामायिक करने वाला श्रावक इस क्रिया को खड़े होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में करता है । सामायिक काल में नग्नमुद्राधारी के समान बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से परिमुक्त रहता है । देववन्दना करने वाले को प्रारम्भ में और अन्त में बैठकर प्रणाम करना चाहिए । इस विधि के अनुसार वह दो बार बैठकर प्रणाम करता है- मन-वचन-काय इन तीनों योगों को शुद्ध रखता है और सम्पूर्ण सावद्य व्यापार का त्याग करता हुआ तीनों संध्याकालों में देववन्दना करता है ।