ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 147
From जैनकोष
इदानीमुद्दिष्टविरतिलक्षणगुणयुक्तत्वंश्रावकस्यदर्शयन्नाह-
गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य
भैक्ष्याशनस्तपस्य-न्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर: ॥147॥
टीका:
उत्कृष्टउद्दिष्टविरतिरलक्षणैकादशगुणस्थानयुक्त: श्रावकोभवति।कथम्भूत: ? चेलखण्डधर: कौपीनमात्रवस्त्रखण्डधारक: आर्यलिङ्गधारीत्यर्थ: । तथाभैक्ष्याशनोभिक्षाणांसमूहोभैक्ष्यंतदश्रातीतिभैक्ष्याशन: । किंकुर्वन्? तपस्यन्तप: कुर्वन् । किंकृत्वा ? परिगृह्यगृहीत्वा । कानि ? व्रतानि । क्व ? गुरूपकण्ठेगुरुसमीपे । किंकृत्वा ? इत्वागत्वा । किंतत् ? मुनिवनंमुन्याश्रमं । कस्मात् ? गृहत:॥२६॥
उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा
गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य
भैक्ष्याशनस्तपस्य-न्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर: ॥147॥
टीकार्थ:
उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी श्रावक उत्कृष्ट कहलाता है । यह कौपीन / लंगोट, मात्र खण्डवस्त्र का धारक होता है । 'भिक्षाणां समहो भैक्ष्यं' इस प्रकार समूह अर्थ में अण् प्रत्यय होने से भैक्ष्य शब्द बना है । इस प्रतिमा का धारी भिक्षा से भोजन करता है । अर्थात् मुनियों की तरह गोचरी के लिए निकलता है । अथवा किसी पात्र में गृहस्थों के घरों से उदरपूर्ति के योग्य भोजन एकत्र करता है और अन्त में एक श्रावक के घर में जलादि लेकर भोजन करता है । इस प्रतिमा का धारक घर छोडक़र मुनियों के पास मुनि आश्रम में चला जाता है और व्रतों को धारण करता है ।