ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 150
From जैनकोष
रत्नकरण्डकंकुर्वतश्चममयासौसम्यक्त्वसम्पत्तिर्वृद्धिंगतासाएतदेवकुर्यादित्याह --
सुखयतु सुखभूमि: कामिनं कामिनीव,
सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनत्तु
कुलमिव गुणभूषा, कन्यका सम्पुनीतात्-
जिनपतिपदपद्म-प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी: ॥150॥
टीका:
मांसुखयतुसुखिनंकरोतु । कासौ ? दृष्टिलक्ष्मी: सम्यग्दर्शनसम्पत्ती । किंविशिष्टेत्याह -- जिनेत्यादिजिनानांदेशत: कर्मोन्मूलकानांगणधरदेवादीनांपतयस्तीर्थङ्करास्तेषांपदानिसुबन्ततिङन्तानिपदावातान्येवपद्मानितानिप्रेक्षतेश्रद्दधातीत्येवंशीला । अयमर्थ :- लक्ष्मी: पद्मावलोकनशीलाभवति, दृष्टिलक्ष्मीस्तुजिनोक्तपदपदार्थप्रेक्षणशीलेति । कथम्भूतासा ? सुखभूमि: । सुखोत्पत्तिस्थानम् । केवकम् ? कामिनंकामिनीवयथाकामिनीकामभूमि: कामिनंसुखयतितथामांदृष्टिलक्ष्मी: सुखयतु । तथासामांभुनक्तुरक्षतु । केव ? सुतमिवजननी । किंविशिष्टा ? शुद्धशीलाजननीहिशुद्धशीलासुतंरक्षतिनाशुद्धशीलादुश्चारिणी । दृष्टिलक्ष्मीस्तुगुणव्रतशिक्षाव्रतलक्षणशुद्ध-सप्तशीलसमन्वितामांभुनक्तु । तथासामांसम्पुनीतात्सकलदोषकलङ्कंनिराकृत्यपवित्रयतु । किमिव ? कुलमिवगुणभूषाकन्यका । अयमर्थ: कुलंयथागुणभूषागुणाऽलङ्कारोपेताकन्यापवित्रयतिश£ाघ्यतांनयतितथादृष्टिलक्ष्मीरपिगुणभूषाअष्टमूलगुणैरलङ्कृतामांसम्यक्पुनीतादिति ॥२९॥;;येनाज्ञानतमोविनाश्यनिखिलंभव्यात्मचेतोगतम्,;;सम्यग्ज्ञानमहांशुभि: प्रकटित: सागारमार्गोऽखिल:;;सश्रीरत्नकरण्डकामलरवि: संसृत्सरिच्छोषको,;;जीयादेषसमन्तभद्रमुनिय: श्रीमान्प्रभेन्दुर्जिन: ॥१॥
इतिप्रभाचन्द्रविरचितायांसमन्तभद्रस्वामीविरचितोपासकाध्ययनटीकायांपञ्चम: परिच्छेद:।
इष्ट प्रार्थना
सुखयतु सुखभूमि: कामिनं कामिनीव,
सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनत्तु
कुलमिव गुणभूषा, कन्यका सम्पुनीतात्-
जिनपतिपदपद्म-प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी: ॥150॥
टीकार्थ:
'जिनपतिपदपद्मपे्रक्षिणी' इस शब्द में जो पद शब्द है, उसके दो अर्थ हैं -- एक सुबन्त, तिङन्तरूप पद शब्द समूह और दूसरा चरणकमल । वह अर्थ इस प्रकार है- तीर्थङ्करभगवन्त के शब्द रूप कमलों का श्रद्धान करने वाली, अथवा तीर्थङ्कर भगवान् के चरणकमलों का अवलोकन करने वाली अर्थात् उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखने वाली सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे । जिस प्रकार विषयसुख की भूमि कामिनी कामी पुरुष को सुखी करती है, उसी प्रकार आत्मोत्थसुख की भूमि सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे । जिस प्रकार शुद्धशीला-निर्दोष सदाचारिणी माता अपने निर्दोष पुत्र की रक्षा करती है, किन्तु दुराचारिणी माता नहीं । उसी प्रकार शुद्धशीला / निरतिचार गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप सप्तशील से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मेरी रक्षा करे । तथा जिस प्रकार गुणभूषा—शील, अलंकारों आदि से विभूषित कन्या अपने कुल को पवित्र एवं प्रशंसनीय बनाती है, उसी प्रकार गुणभूषा-अष्टांग आदि से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे अच्छी तरह पवित्र करे, मुझे कर्मकलंक से रहित करे ।
येनाज्ञानतमो इति- जिन्होंने भव्य जीवों के चित्त में स्थित समस्त अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया है तथा सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों के द्वारा समस्त गृहस्थ धर्मरूप मार्ग को प्रकट किया है, जो श्री रत्नत्रयरूप पिटारे को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं, पक्ष में भाव से कर्ता होने के कारण रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं । संसाररूपी नदी को सुखाने वाले हैं । समन्तभद्र-कल्याणों से परिपूर्ण मुनियों की रक्षा करने वाले हैं । पक्ष में इस ग्रन्थ के कत्र्ता समन्तभद्रस्वामी के रक्षक हैं । अनन्तचतुष्टयरूप श्री से सहित हैं तथा प्रभा-कान्ति से जो चन्द्रमा हैं, ऐसे जिनेन्द्र देव जयवन्त रहें ।
इस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित, समन्तभद्रस्वामी द्वारा विरचित उपासकाध्ययन की टीका में पञ्चम परिच्छेद सल्लेखना प्रतिमाधिकार पूर्ण हुआ॥ ५॥