ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 33
From जैनकोष
यतश्च सम्यग्दर्शनसम्पन्नो गृहस्थोऽपि तदसम्पन्नान्मुनेरुत्कृष्टतरस्ततोऽपि सम्यग्दर्शनमेवोत्कृष्टमित्याह-
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥33॥
टीका:
निर्मोहो दर्शनप्रतिबन्धकमोहनीयकर्मरहित: सद्दर्शनपरिणत इत्यर्थ: इत्थम्भूतो गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो भवति । अनगारो यति:। पुन: नैव मोक्षमार्गस्थो भवति । किंविशिष्ट: ? मोहवान् दर्शनमोहोपेत: । मिथ्यात्वपरिणत इत्यर्थ: । यह एवं ततो गृही गृहस्थो । यो निर्मोह: स श्रेयान् उत्कृष्ट: । कस्मात् ? मुने: । कथम्भूतात् ? मोहिनो दर्शनमोहयुक्तात् ॥३३॥
जिस कारण सम्यग्दर्शन से सम्पन्न गृहस्थ भी सम्यग्दर्शन से रहित मुनि की अपेक्षा उत्कृष्ट है उस कारण से भी सम्यग्दर्शन ही उत्कृष्ट है, यह कहते हैं-
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥33॥
टीकार्थ:
जो गृहस्थ सम्यग्दर्शन का घात करने वाले मोहनीय कर्म से रहित होने के कारण सम्यग्दर्शनरूप परिणत है वह तो मोक्षमार्ग में स्थित है, किन्तु जो यति दर्शनमोह-मिथ्यात्व से सहित है वह मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है । इस प्रकार मिथ्यात्व युक्त मुनि की अपेक्षा सम्यक्त्व सहित गृहस्थ श्रेष्ठ है ।