ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 40
From जैनकोष
तथा मोक्षप्राप्तिरपि सम्यग्दर्शनशुद्धानामेव भवतीत्याह-
शिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम्
काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥40॥
टीका:
दर्शनशरणा: दर्शनं शरणं संसारापायपरिरक्षकं येषां, दर्शनस्य वा शरणं रक्षणं यत्र ते । शिवं मोक्षम् । भजन्त्यनुभवन्ति । कथम्भूतम् ? अजरं न विद्यते जरा वृद्धत्वं यत्र । अरुजं न विद्यते रुग्व्याधिर्यत्र । अक्षयं न विद्यते लब्धानन्तचतुष्टयक्षयो यत्र । अव्याबाधं न विद्यते दु:खकारणेन केनचिद्विविधा विशेषेण वा आबाधा यत्र । विशोकभयशङ्कं विगता शोकभयशङ्का यत्र । काष्ठागतसुखविद्याविभवं काष्ठा परमप्रकर्षं गत: प्राप्त: सुखविद्ययोर्विभवो विभूतिर्यत्र । विमलं विगतं मलं द्रव्यभावरूपकर्म यत्र ॥४०॥
आगे, मोक्ष की प्राप्ति भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीवों को ही होती है, यह कहते हैं-
शिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम्
काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥40॥
टीकार्थ:
'दर्शनं शरणं संसारापायपरिरक्षकं येषां ते' सम्यग्दर्शन ही जिनके शरण है यानी संसार के दु:खों से रक्षा करने वाला है । अथवा 'दर्शनस्य शरणं रक्षणं यत्र ते' जिनमें सम्यग्दर्शन की रक्षा होती है वे दर्शन शरण कहे जाते हैं । ऐसे दर्शन के शरणभूत सम्यग्दृष्टि जीव ही शिव-मोक्ष का अनुभव करते हैं । वह मोक्ष अजरवृद्धावस्था से रहित है, अरुज-रोग रहित है, अक्षय-जिसका कभी भी क्षय नहीं होता ऐसे अनन्त चतुष्टय के क्षय से रहित है । अव्याबाध है -- जो अनेक प्रकार की बाधा-दु:ख के कारणों से रहित हैं । विशोकभयाशंक है -- शोक, भय तथा शंका से रहित है, काष्ठागत सुख विद्या विभव है । जो परमप्रकर्षता को प्राप्त हुए सुख और ज्ञान के वैभव से सहित है तथा विमल है -- द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म-रूप मल से रहित है ।