ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 75
From जैनकोष
अथ के ते अनर्थदण्डा यतो विरमणं स्यादित्याह --
पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च
प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥75॥
टीका:
दण्डा इव दण्डा अशुभमनोवाक्काया: परपीडाकरत्वात्, तान्न धरन्तीत्यदण्डधरा गणधरदेवादयस्ते प्राहु: । कान् ? अनर्थदण्डान् । कति ? ‘पञ्च’ । कथमित्याह पापेत्यादि । पापोपदेशश्च हिंसादानं च अपध्यानं च दु:श्रुतिश्च एताश्चतस्र: प्रमादचर्या चेति पञ्चामी ॥
अनर्थदण्ड के भेद
पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च
प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥75॥
टीकार्थ:
दण्ड-मन, वचन, काय के अशुभ व्यापार को दण्ड कहते हैं । क्योंकि ये दण्डों के समान परपीड़ाकारक होते हैं । उन दण्डों को नहीं धारण करने वाले गणधरादि देवों ने पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या इन पाँच को अनर्थदण्ड कहा है । इन पाँचों से निवृत्त होना ही पाँच प्रकार का अनर्थदण्डव्रत है ।