ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 8
From जैनकोष
सम्यग्दर्शनविषयभूताप्तस्वरूपमभिधायेदानीन्तद्विषयभूतागमस्वरूपमभिधातुमाह --
अनात्मार्थं विना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शा-न्मुरज: किमपेक्षते ॥8॥
टीका:
शास्ता आप्त: । शास्ति शिक्षयति । कान् ? सत: अविपर्ययस्तादित्वेन समीचीनान्भव्यान् । किं शास्ति ? हितं स्वर्गादितत्साधनं च सम्यग्दर्शनादिकम् । किमात्मन: किञ्चित्फलमभिलषन्नसौशास्तीत्याह -- अनात्मार्थं न विद्यते आत्मनोऽर्थ: प्रयोजनं यस्मिन्शासनकर्मणि परोपकारमेवासौ तान्शास्ति । परोपकाराय सतां हि चेष्टितम् इत्यभिधानात् । स तथा शास्तीत्येतत्कुतोऽवगतमित्याह विनारागै: यतो लाभ-पूजा-ख्यात्यभिलाषालक्षणपरैर्रागैर्विनाशास्तिततोऽनात्मार्थं शास्तीत्यवसीयते । अस्यैवार्थस्यसमर्थनार्थमाह- ध्वनन्नित्यादि । शिल्पिकरस्पर्शाद्वादककराभि-घातान्मुरजोनदतोध्वनन्किमात्मार्थङ्किञ्चिदपेक्षते ? नैवापेक्षते । अयमर्थ :- यथामुरज: परोपकारार्थमेवविचित्रान्शब्दान्करोतितथासर्वज्ञ: शास्त्रप्रणयनमिति ॥८॥
सम्यग्दर्शन के विषयभूत आप्त का स्वरूप कहकर अब उसके विषयभूत आगम का स्वरूप कहने के लिए श्लोक कहते हैं --
अनात्मार्थं विना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शा-न्मुरज: किमपेक्षते ॥8॥
टीकार्थ:
अरहन्त भगवान् विपर्ययादि दोषों से रहित श्रेष्ठ भव्य जीवों को दिव्यध्वनि के द्वारा स्वर्गादिक तथा उनके साधनरूप सम्यग्दर्शनादिक का उपदेश देते हैं, किन्तु वे अपने लिए किंचित् भी फलाभिलाषा-रूप राग नहीं रखते हैं तथा उस उपदेश में उनका स्वयं का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता । मात्र परोपकार के लिए उनकी दिव्य वाणी की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है -- 'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम्' अर्थात् सत् पुरुषों की चेष्टा परोपकार के लिए ही होती है । राग तथा निजी प्रयोजन के बिना आप्त कैसे उपदेश देते हैं ? इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं कि जैसे शिल्पी के हाथ के स्पर्श से बजनेवाला, मनुष्य के हाथ की चेष्टा से शब्द करता हुआ मृदंग क्या कुछ चाहता है? कुछ नहीं चाहता । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृदंग परोपकार के लिए अनेक प्रकार के शब्द करता है, उसी प्रकार आप्त भगवान् भी परोपकार के लिए ही दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं ।