ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 14
From जैनकोष
गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं ।जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ॥१४॥
गृह्णाति अदत्तदानं परनिन्दामपि च परोक्षदूषणै: ।
जिनलिङ्ग धारयन् चौरेणेव भवति स: श्रमण: ॥१४॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष पर के दूषणों से पर की निंदा करता है वह जिनलिंग को धारण करता हुआ भी चोर के समान श्रमण है ।
भावार्थ - जो जिनलिंग धारण करके बिना दिये आहार आदि को ग्रहण करता है, पर के देने की इच्छा नहीं है, परन्तु कुछ भयादिक उत्पन्न करके लेना तथा निरादर से लेना, छिपकर कार्य करना - ये तो चोर के कार्य हैं । यह भेष धारण करके ऐसे करने लगा तब चोर ही ठहरा इसलिए ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है ॥१४॥