ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 19
From जैनकोष
एवं सहिओ मुणिवर संजदमज्झम्मि वट्टदे णिच्चं ।
बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥१९॥
एवं सहित: मुनिवर ! संयतमध्ये वर्त्तते नित्यम् ।
बहुलमपि जानन् भावविनष्ट: न स: श्रमण: ॥१९॥
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके पूर्वोक्त प्रकार प्रवर्तता है, वह श्रमण नहीं है, ऐसा संक्षेप में कहते हैं -
अर्थ - एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति सहित जो वर्तता है वह हे मुनिवर ! जो ऐसा लिंग धारी संयमी मुनियों के मध्य भी निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रों को भी जानता है तो भी भावों से नष्ट है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - ऐसा पूर्वोक्त प्रकार का लिंगी जो सदा मुनियों में रहता है और बहुत शास्त्रों को जानता है तो भी भाव अर्थात् शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणाम से रहित है, इसलिए मुनि नहीं है, भ्रष्ट है, अन्य मुनियों के भाव बिगाड़नेवाला है ॥१९॥