ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 5
From जैनकोष
सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ठं झाएदि बहुपयत्तेण ।
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥५॥
समूहयति रक्षति च आर्त्तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन ।
स: पापमोहितमति: तिर्यग्योनि: न स: श्रमण: ॥५॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - जो निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके परिग्रह को संग्रहरूप करता है अथवा उसकी वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह की रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है, उसके लिए आर्त्तध्यान निरंतर ध्याता है, वह पाप से मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है, श्रमणपने को बिगाड़ता है ऐसे जानना ॥५॥