ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 1
From जैनकोष
4. किं तर्हि ? तत् त्रितयं समुदितमित्याह –
4. तो फिर मोक्षकी प्राप्तिका क्या उपाय है ? यह प्रश्न शेष रहता है। इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिए आचार्यने प्रथम सूत्र रचा है। वे कहते हैं –
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।।1।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग हैं।।1।।
5. सम्यगित्यव्युत्पन्न: शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चते: क्वौ समञ्चतीति सम्यगिति[1]। अस्यार्थ: प्रशंसा। स प्रत्येकं परिसमाप्यते। सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। एतेषां स्वरूपं लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण निर्देक्ष्याम:। उद्देशमात्रं त्विदमुच्यते[2] - पदार्थानां याथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थं दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम्। येन येन प्रकारेण जीवादय: पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगम: सम्यग्ज्ञानम्। [3]विमोहसंशयविपर्ययनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम्। संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: [4]कर्मादाननिमित्तक्रियोपरम: सम्यक्चारित्रम्। अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम्।
5. ‘सम्यक्’ शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढ़िक और व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरणसिद्ध है। जब यह व्याकरणसे सिद्ध किया जाता है तब सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्च धातुसे क्विप् प्रत्यय करने पर ‘सम्यक्’ शब्द बनता है। संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति ‘समञ्चति इति सम्यक्’ इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। इसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें-से प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। लक्षण और भेदके साथ इनका स्वरूप विस्तारसे आगे कहेंगे। नाममात्र यहाँ कहते हैं – पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धानका संग्रह करनेके लिए दर्शनके पहले सम्यक् विशेषण दिया है। जिस-जिस प्रकारसे जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस-उस प्रकारसे उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञानके पहले सम्यक् विशेषण विमोह(अनध्यवसाय), संशय और विपर्यय ज्ञानोंका निराकरण करनेके लिए दिया है। जो ज्ञानी पुरुष संसारके कारणोंको दूर करनेके लिए उद्यत है उसके कर्मोंके ग्रहण करनेमें निमित्तभूत क्रियाके उपरम होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं। चारित्रके पहले ‘सम्यक्’ विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरणके निराकरण करने के लिए दिया है।
6. [5]पश्यति [6]दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्। जानाति [7]ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम्। चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्[8]। नन्वेवं स एव कर्त्ता स एव करणमित्यायातम्। तच्च विरुद्धम्। सत्यं, स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात्। यथाग्निर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेन। उक्त: कर्त्रादिसाधनभाव:[9] पर्यायपर्यायिणोरेकत्वानेकत्वं प्रत्यनेकान्तोपपत्तौ स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्यविवक्षोपपत्तेरेकस्मिन्नप्यर्थे न विरुध्यते। अग्नौ दहनादिक्रियाया: कर्त्रादिसाधनभाववत्।
6. दर्शन, ज्ञान और चारित्रका व्युत्पत्यर्थ – दर्शन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – ‘पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्’ – जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र। ज्ञान शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – ‘जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम् – जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जानना मात्र। चारित्र शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् – जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण करना मात्र। शंका – दर्शन आदि शब्दोंकी इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर कर्त्ता और करण एक हो जाता है किन्तु यह बात विरुद्ध है ? समाधान – यद्यपि यह कहना सही है तथापि स्वपरिणाम और परिणामीमें भेदकी विवक्षा होनेपर उक्त प्रकारसे कथन किया गया है। जैसे ‘अग्नि दाह परिणामके द्वारा ईंधनको जलाती है यह कथन भेदविवक्षाके होनेपर ही बनता है। यहाँ चूँकि पर्याय और पर्यायीमें एकत्व और अनेकत्वके प्रति अनेकान्त है, अत: स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य विवक्षाके होनेसे एक ही पदार्थमें पूर्वोक्त कर्त्ता आदि साधनभाव विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसे कि अग्निसे दहन आदि क्रियाकी अपेक्षा कर्त्ता आदि साधन भाव बन जाता है, वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए।
7. ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् [10]अल्पाच्तरत्वाच्च। नैतद्युक्तं, युगपदुत्पत्ते:। यदास्य दर्शनमोहस्योपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वा आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविगमे[11] सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत्। [12]अल्पाच्तरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति। कथमभ्यर्हितत्वम् ? ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात्। चारित्रात्पूर्वं ज्ञानं प्रयुक्तं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य।
7. शंका – सूत्रमें पहले ज्ञानका ग्रहण करना उचित है, क्योंकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञानमें दर्शन शब्दकी अपेक्षा कम अक्षर हैं ? समाधान – यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है इसलिए सूत्रमें ज्ञानको पहले ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं। जैसे – मेघ-पटलके दूर हो जाने पर सूर्यके प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेसे आत्मा सम्यग्दर्शन पर्यायसे आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। दूसरे, ऐसा नियम है कि सूत्रमें अल्प अक्षरवाले शब्दसे पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, अत: पहले ज्ञान शब्दको न रखकर दर्शन शब्दको रखा है। शंका – सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है ? समाधान – क्योंकि सम्यग्दर्शन ज्ञानके सम्यक् व्यपदेशका हेतु है। चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है।
8. सर्वकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:। तत्प्राप्त्युपायो मार्ग:। मार्ग इति चैकवचननिर्देश: समस्तस्य[13] मार्गभावज्ञापनार्थ:। तेन व्यस्तस्य मार्गत्वनिवृत्ति: कृता भवति। अत: सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमित्येतत् त्रितयं समुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्य:।
8. सब कर्मोंका जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्तिका उपाय मार्ग है। सूत्रमें ‘मार्ग:’ इस प्रकार जो एकवचन रूपसे निर्देश किया है वह, सब मिलकर मोक्षमार्ग है, इस बातके जतानेके लिए किया है। इससे प्रत्येकमें मार्गपन है इस बातका निराकरण हो जाता है। अत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका साक्षात् मार्ग है ऐसा जानना चाहिए।
विशेषार्थ – पूर्व प्रतिज्ञानुसार इस सूत्रमें मोक्षमार्गका निर्देश किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका साक्षात् मार्ग हैं यह इस सूत्रका तात्पर्य है। सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धिमें मुख्यतया पाँच विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है जो इस प्रकार हैं – 1. दर्शन आदिके पहले ‘सम्यक्’ विशेषण देनेका कारण। 2. दर्शन आदि शब्दोंका व्युत्पत्त्यर्थ। 3. एक ही पदार्थ अपेक्षाभेदसे कर्ता और करण कैसे होता है इसका निर्देश। 4. सूत्रमें सर्व प्रथम दर्शन, तदनन्तर ज्ञान और अन्तमें चारित्र शब्द क्यों रखा है इसका कारण। 5. सूत्रमें ‘मोक्षमार्ग:’ यह एकवचन रखने का कारण। तीसरी विशेषताको स्पष्ट करते हुए जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि जैन शासनमें पर्याय-पर्यायीमें सर्वथा भेद न मानकर कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद माना गया है इसलिए अभेद विवक्षाके होनेपर कर्ता साधन बन जाता है और भेद विवक्षाके होनेपर करण साधन बन जाता है। आशय यह है कि जब अभेद विवक्षित होता है तब आत्मा स्वयं ज्ञानादि रूप प्राप्त होता है और जब भेद विवक्षित होता है तब आत्मासे ज्ञान आदि भिन्न प्राप्त होते हैं। चौथी विशेषताको स्पष्ट करते हुए जो यह लिखा है कि जिस समय दर्शनमोहका उपशम, क्षय और क्षयोपशम होकर आत्माकी सम्यग्दर्शन पर्याय व्यक्त होती है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। सो यह आपेक्षिक वचन है। वैसे तो दर्शनमोहनीयका क्षय सम्यग्दृष्टि ही करता है मिथ्यादृष्टि नहीं, अत: दर्शनमोहनीयके क्षपणाके समय मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानके सद्भाव का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय इस जीवके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ही पाये जाते हैं। इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके भी यही क्रम जान लेना चाहिए। शेष व्याख्यान सुगम है।
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ –गिति। कोऽस्या- दि.1।
- ↑ –च्यते। पदार्थानां याथा – मु.
- ↑ ज्ञानम्। अनध्यवसाय सं.- मु.।
- ↑ दानमिति तत्क्रियो- दि, 2।
- ↑ –षणम्। स्वयं पश्य- मु.। –षणम्। यस्मादिति पश्य– दि, 1 दि. 2।
- ↑ –श्यतेऽनेनेति दृष्टि- मु.।
- ↑ –ज्ञाप्तिमात्रं मु.। ज्ञानमात्र दि. 2।
- ↑ –रित्रम्। उक्त: कर्त्रा- आ., ता. न.।
- ↑ कर्त्रादिभि: सा- मु.।
- ↑ ‘अल्पाच्तरम्।’ – पा. 2।2।34।
- ↑ –टलविरामे स- आ., अ., दि.।, दि. 2।
- ↑ ‘अभ्यर्हितं च पूर्वं निपततीति –पा. म. भा. 2।2।2।34।
- ↑ समस्तमार्ग– आ., दि. 1, दि. 2।