ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 13
From जैनकोष
181. अभिहितोभयप्रकारस्य प्रमाणस्य आदिप्रकारविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह -
181. प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे। अब हम प्रथम प्रकारके प्रमाणके विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।।13।।
मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं।।13।।
182. [1]आदौ उद्दिष्टं यज्ज्ञानं तस्य पर्यायशब्दा एते वेदितव्या:; मतिज्ञानावरणक्षयोपशमा-न्तरंगनिमित्तजनितोपयोगविषयत्वादेतेषां श्रुतादिष्वप्रवृत्तेश्च। मननं मति:, स्मरणं स्मृति:, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनमभिनिबोध इति। यथासंभवं विग्रहान्तरं विज्ञेयम्।
182. आदिमें जो ज्ञान कहा है उसके ये पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए, क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप अन्तरंग निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको विषय करते हैं और इनकी श्रुतादिकमें प्रवृत्ति नहीं होती। ‘मननं मति:, स्मरण स्मृति:, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता और अभिनिबोधनमभिनिबोध:’ यह इनकी व्युत्पत्ति है। यथा सम्भव इनका दूसरा विग्रह जानना चाहिए।
183. सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिबललाभात् पर्यायशब्दत्वम्। यथा इन्द्र:[2] शक्र: पुरन्दर इति इन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा[3]। समभिरूढनयोपक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनायां मत्यादिष्वपि स क्रमो विद्यत एव। किं तु मतिज्ञानारणक्षयोपशमनिमित्तोपयोगं [4]नातिवर्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षित:। ‘इति’ शब्द: [5]प्रकारार्थ:; एवं प्रकारा अस्य पर्यायशब्दा इति। अभिधेयार्थो वा। मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति।
183. यद्यपि इन शब्दोंकी प्रकृति अलग-अलग है अर्थात् यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातुसे बने हैं तो भी रूढि़से पर्यायवाची हैं। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपतिकी वाचक संज्ञाएँ हैं। अब यदि समभिरूढ नयकी अपेक्षा इन शब्दोंका अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति आदि शब्दोंमें भी पाया जाता है। किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको उल्लंघन नहीं करते हैं यह अर्थ यहाँपर विवक्षित है। प्रकृतमें ‘इति’ शब्द प्रकारवाची है जिससे यह अर्थ होता है कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची शब्द हैं। अथवा प्रकृतमें मति शब्द अभिधेयवाची है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह एक ही है।
विशेषार्थ – इस सूत्रमें मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। षट्खण्डागमके प्रकृति अनुयोगद्वारमें भी मतिज्ञानके ये ही पर्यायवाची नाम आये हैं। अन्तर केवल यह है कि वहाँ मतिज्ञान नाम न देकर आभिनिबोधिकज्ञान नाम दिया है और फिर इसके संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये चार पर्यायवाची नाम दिये हैं। इससे जो लोग प्रकृतमें मतिका अर्थ वर्तमान ज्ञान, स्मृतिका अर्थ स्मरणज्ञान, संज्ञाका अर्थ प्रत्यभिज्ञान, चिन्ताका अर्थ तर्क और अभिनिबोधका अर्थ अनुमान करते हैं वह विचारणीय हो जाता है। वास्तवमें यहाँ इन नामोंका विविध ज्ञानोंकी अपेक्षासे संग्रह नहीं किया गया है, किन्तु मतिज्ञानके पर्यायवाची नामोंकी अपेक्षासे ही संग्रह किया गया है। सूत्रकारने इसी अर्थमें इनका अनर्थान्तररूपसे निर्देश किया है। इस सूत्रकी टीकामें इन विशेषताओंपर प्रकाश डाला गया है। 1. मति आदि शब्दोंके पर्यायवाची होनेमें हेतु। 2. मति आदि शब्दोंकी व्युत्पत्ति। 3. मति आदि शब्दोंमें प्रकृति भेद होनेपर भी उनके पर्यायवाचित्वका दृष्टान्त–द्वारा समर्थन। 4. समभिरूढनयकी अपेक्षा इनमें अर्थ भेद होने पर भी प्रकृत में ये पर्यायवाची क्यों हैं इनमें पुन: युक्ति। 5. सूत्रमें आये हुए ‘इति’ शब्दकी सार्थकता।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ आदौ यदुद्दिष्ठं ज्ञानं मु.।
- ↑ ‘बहवो हि शब्दा: एकार्था भवन्ति। तद्यथा—‘इन्द्र: शक्र: पुरुहूत: पुरन्दर:।‘—पा. म. भा. 1।2।2।45।
- ↑ संज्ञा:। सम—मु.।
- ↑ नातिवर्तन्त इति –मु.।
- ↑ –कारार्थे। एवं –आ., दि.1, दि. 2। ‘हेतावेवं प्रकारे च व्यवच्छेदे विपर्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्द: प्रकीर्तित:।‘ –अने. ना. श्लो.।