ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 1 - सूत्र 7
From जैनकोष
25. एवं प्रमाणनयैरधिगतानां जीवादीनां पुनरप्यधिगमोपायान्तरप्रदर्शनार्थमाह –
25. इस प्रकार प्रमाण और नयके द्वारा जाने गये जीवादि पदार्थोंके जाननेके दूसरे उपाय बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानत:।।7।।
निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानसे सम्यग्दर्शन आदि विषयोंका ज्ञान होता है।।7।।
26. निर्देश: स्वरूपाभिधानम्। स्वामित्वमाधिपत्यम्। साधनमुत्पत्तिनिमित्तम्। अधिकरणमधिष्ठा-नम्। स्थिति: कालपरिच्छेद:। विधानं प्रकार:। तत्र सम्यग्दर्शनं किमिति प्रश्ने तत्त्वार्थश्रद्धानमिति निर्देशो नामादिर्वा[1]। कस्येत्युक्ते सामान्येन जीवस्य। विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। तिर्यग्गतौ तिरश्चां पर्याप्तकानामौपशमिकमस्ति। क्षायिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकाना-मस्ति। तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति[2]। औपशमिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम्। मनष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। औपशमिकं पर्याप्तकानामेव नापर्याप्तकानाम्। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम्[3]। देवगतौ[4] देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां त्रितयमप्यस्ति। औपशमिकमपर्याप्तकानां कथमिति चेच्चारित्रमोहोपशमेन सह मृतान्प्रति[5]। भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मैशानकल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति। तेषां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति।
26. किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है। स्वामित्वका अर्थ आधिपत्य है। जिस निमित्तसे वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। अधिष्ठान या आधार अधिकरण है। जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है और विधान का अर्थ प्रकार या भेद है। ‘सम्यग्दर्शन क्या है’ यह प्रश्न हुआ, इस पर ‘जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है’ ऐसा कथन करना निर्देश है या नामादिकके द्वारा सम्यग्दर्शनका कथन करना निर्देश है। सम्यग्दर्शन किसके होता है ? सामान्यसे जीवके होता है और विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियोंमें पर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। पहली पृथिवीमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियोंके क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। तिर्यंचगतिमें पर्याप्तक तिर्यंचोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके तिर्यंचोंके होता है। तिर्यंचनीके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता। औपशमिक और क्षायोपशमिक पर्याप्तक तिर्यंचनीके ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यंचनीके नहीं। मनुष्य गतिमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके मनुष्योंके होता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक मनुष्य के ही होता है, अपर्याप्तक मनुष्यके नहीं। मनुष्यनियोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु ये पर्याप्तक मनुष्यनीके ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यनीके नहीं । देवगतिमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। शंका – अपर्याप्तक देवोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन कैसे होता है ? समाधान – जो मनुष्य चारित्रमोहनीयका उपशम करके या करते हुए उपशमश्रेणी में मरकर देव होते हैं उन देवोंके अपर्याप्तक अवस्थामें औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके, इन तीनोंकी देवांगनाओंके, तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवांगनाओंके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं सो वे भी पर्याप्तक अवस्थामें ही होते हैं।
27. इन्द्रियानुवादेन पञ्चेन्द्रियाणां संज्ञिनां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम्। कायानुवादेन त्रसकायिकानां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम्। योगानुवादेन त्रयाणां योगानां त्रितयमप्यस्ति। अयोगिनां क्षायिकमेव। वेदानुवादेन त्रिवेदानां त्रितयमप्यस्ति। अपगतवेदानामौपशमिकं क्षायिकं चास्ति। कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां त्रितयमप्यस्ति। अकषायाणामौपशमिकं क्षायिकं चास्ति। ज्ञानानुवादेन आभिनिबोधिकश्रुतावधि-कमन:पर्ययज्ञानिनां त्रितयमप्यस्ति। केवलज्ञानिनां क्षायिकमेव। संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापना-संयतानां त्रितयमप्यस्ति। परिहारविशुद्धिसंयतानामौपशमिकं नास्ति, इतरद् द्वितयमप्यस्ति, सूक्ष्मसांपराय-यथाख्यातसंयतानामौपशमिकं क्षायिकं चास्ति, संयतासंयतानां असंयतानां[6] च त्रितयमप्यस्ति। दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनिनां त्रितयमप्यस्ति, केवलदर्शनिनां क्षायिकमेव। लेश्यानुवादेन षड्लेश्यानां त्रितयमप्यस्ति, अलेश्यानां क्षायिकमेव। भव्यानुवादेन भव्यानां [7]त्रितयमप्यस्ति, नाभव्यानाम्। सम्यक्त्वा-नुवादेन यत्र यत्सम्यग्दर्शनं तत्र तदेव ज्ञेयम्। संज्ञानुवादेन संज्ञिनां त्रितयमप्यस्ति, नासंज्ञिनाम्, तदुभयव्यपदेशरहितानां क्षायिकमेव। आहारानुवादेन आहारकाणां त्रितयमप्यस्ति, अनाहारकाणां छद्मस्थानां त्रितयमप्यस्ति, केवलिनां समुद्घातगतानां क्षायिकमेव।
27. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य कायवाले जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। योगमार्गणाके अनुवादसे तीनों योगवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अयोगी जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। वेदमार्गणाके अनुवादसे तीनों वेदवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अपगतवेदी जीवोंके औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु कषायरहित जीवोंके औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु केवलज्ञानी जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। संयममार्गणाके अनुवादसे सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, परिहारविशुद्धिसंयतोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, शेष दो होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन होते हैं, संयतासंयत और असंयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु केवलदर्शनवाले जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्यावाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु लेश्यारहित जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्य जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अभव्योंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे जहाँ जो सम्यग्दर्शन है वहाँ वही जानना। संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, असंज्ञियोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता तथा संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अनाहारक छद्मस्थोंके भी तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु समुद्घातगत केवली अनाहारकोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है।
विशेषार्थ- पदार्थोंके विवेचन करनेकी प्राचीन दो परम्पराएँ रही हैं – निर्देश आदि छह अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी एक परम्परा और सदादि आठ अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी दूसरी परम्परा। यहाँ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यने 7वें और 8वें सूत्रों द्वारा इन्हीं दो परम्पराओंका निर्देश किया है। यहाँ टीकामें निर्देश आदिके स्वरूपका कथन करके उन द्वारा सम्यग्दर्शनका विचार किया गया है। उसमें भी स्वामित्वकी अपेक्षा जो कथन किया है उसका भाव समझनेके लिए यहाँ मुख्य बातोंका उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। इन बातोंको ध्यानमें रखनेसे चारों गतियामें किस अवस्थामें कहाँ कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका निर्णय करनेमें सहायता मिलती है। वे बातें ये हैं -1. क्षायिक सम्यग्दर्शनका प्रस्थापक कर्मभूमिका मनुष्य ही होता है। किन्तु ऐसा जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जानेके बाद मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकता है। 2. नरकमें उक्त जीव प्रथम नरकमें ही जाता है। दूसरे आदि नरकोंमें कोई भी सम्यग्दृष्टि मरकर नहीं उत्पन्न होता। 3. तिर्यंचोंमें व मनुष्योंमें उक्त जीव उत्तम भोगभूमिके पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें व मनुष्योंमें ही उत्पन्न हो सकता है। 4. तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिके स्त्रीवेदियोंमें कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता। 5. भवनत्रिकमें भी कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता। 6. उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देवोंमें ही उत्पन्न होता है। उसमें भी उपशमश्रेणिमें स्थित उपशम सम्यग्दृष्टिका ही मरण सम्भव है, अन्यका नहीं। 7. कृत्यकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन क्षयोपशम सम्यग्दर्शनका एक भेद है। इसके सिवा दूसरे प्रकारके क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव मरकर देव और मनुष्यगतिमेंही जन्म लेते हैं, नरक और तिर्यंचगति में नहीं। ऐसे जीव यदि तिर्यंचगति और मनुष्यगतिके होते हैं तो देवोंमें उत्पन्न होते हैं। यदि नरकगति और देवगतिके होते हैं तो वे मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं। 8. क्षायिकसम्यग्दृष्टि और कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर नुपंसकवेदियोंमें उत्पन्न होता हुआ भी प्रथम नरकके नपुंसकवेदियोंमेंही उत्पन्न होता है। मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके नपुंसकवेदियोंमें नहीं उत्पन्न होता[8]। ये ऐसी बातें हैं जिनको ध्यानमें रखनेसे किस गति के जीवके किस अवस्थामें कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका पता लग जाता है। उसका स्पष्ट उल्लेख मूल टीकामें किया ही है। एक बातका उल्लेख कर देना और आवश्यक प्रतीत होता है वह यह कि गति मार्गणाके अवान्तर भेद करणानुयोगमें यद्यपि भाववेदकी प्रधानतासे किये गये हैं, द्रव्य वेदकी प्रधानतासे नहीं, इसलिए यहाँ सर्वत्र भाववेदी स्त्रियोंका ही ग्रहण किया गया है । तथापि द्रव्यस्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि मरकर नहीं उत्पन्न होता यह बात अन्य प्रमाणोंसे जानी जाती है। इस प्रकार किस गतिकी किस अवस्थामें कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका विचार किया। शेष मार्गणाओंमें कहाँ कितने सम्यग्दर्शन हैं और कहाँ नहीं इसका विचार सुगम है, इसलिए यहाँ हमने स्पष्ट नहीं किया। मात्र मन:पर्ययज्ञानमें उपशम सम्यग्दर्शनका अस्तित्व द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा जानना चाहिए।
28. साधनं द्विविधं अभ्यन्तरं बाह्यं च। अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशम: क्षय: क्षयोपशमो वा। बाह्यं नारकाणां प्राक्चतुर्थ्या: सम्यग्दर्शनस्य साधनं केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिद्वेदनाभिभव:। चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्या नारकाणां जातिस्मरणं वेदनाभिभवश्च। तिरश्चां केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं केषांचिज्जिनबिम्बदर्शनम्। मनुष्याणामपि तथैव। देवानां केषांचिज्जतिस्मरणं केषाचिद्धर्मश्रवणं केषांचिज्जिनमहिमदर्शनं केषांचिद्देवर्द्धिदर्शनम्। एवं प्रागानतात्। आनतप्राणतारणाच्युतदेवानां देवर्द्धिदर्शनं मुक्त्वान्यत्त्रितयमप्यस्ति। नवग्रैवेयकवासिनां केषांचिज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणम्। अनुदिशानुत्तरविमानवासिनामियं कल्पना न संभवति; प्रागेव गृहीतसम्यक्त्वानां तत्रोत्पत्ते:।
28. साधन दो प्रकारका है – अभ्यन्तर और बाह्य। दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। बाह्य साधन इस प्रकार है – नारकियोंके चौथे नरकसे पहले तक अर्थात् तीसरे नरक तक किन्हींके जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण और किन्हींके वेदनाभिभवसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। चौथेसे लेकर सातवें नरक तक किन्हींके जातिस्मरण और किन्हींके वेदनाभिभवसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। तिर्यंचोंमें किन्हींके जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण और किन्हींके जिनबिम्बदर्शनसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। मनुष्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। देवोंमें किन्हींके जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण, किन्हींके जिनमहिमादर्शन और किन्हींके देवऋद्धिदर्शनसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था आनत कल्पसे पूर्वतक जानना चाहिए। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत काल्पके देवोंके देवऋद्धिदर्शनको छोड़कर शेष तीन साधन पाये जाते हैं। नौग्रैवेयकके निवासी देवोंके सम्यग्दर्शनका साधन किन्हींके जातिस्मरण और किन्हींके धर्मश्रवण है। अनुदिश और अनुत्तरविमानोंमें रहनेवाले देवोंके यह कल्पना नहीं है, क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं।
29. अधिकरणं द्विविधम् – अभ्यन्तरं बाह्यं च। अभ्यन्तरं स्वस्वामिसंबन्धार्ह एव आत्मा, विवक्षात: कारकप्रवृत्ते:। बाह्यं लोकनाडी। सा कियती ? एकरज्जुविष्कम्भा चतुर्दशरज्ज्वायामा।
29. अधिकरण दो प्रकारका है – अभ्यन्तर और बाह्य। अभ्यन्तर अधिकरण – जिस सम्यग्दर्शनका जो स्वामी है वही उसका अभ्यन्तर अधिकरण है। यद्यपि सम्बन्धमें षष्ठी और अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति होती है, फिर भी विवक्षाके अनुसार कारककी प्रवृत्ति होती है, अत: षष्ठी विभक्ति द्वारा पहले जो स्वामित्वका कथन किया है उसके स्थानमें सप्तमी विभक्ति करनेसे अधिकरणका कथन हो जाता है। बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी है। शंका– वह कितनी बड़ी है ? समाधान – एक राजु चौड़ी और चौदह राजु लम्बी है।
30. स्थितिरौपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मौहूर्तिकी। क्षायिकस्य संसारिणो जघन्यान्त-र्मौहूर्तिकी। उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सान्तर्मुहूर्ताष्टवर्षहीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि। मुक्तस्यसादि-रपर्यवसाना। क्षायोपशमिकस्य जघन्यान्तर्मौहूर्तिकी उत्कृष्टाषट्षष्टिसागरोपमाणि।
30. औपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी संसारी जीवके जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस [9]सागरोपम है। मुक्त जीवके सादि-अनन्त है। क्षायोपशमिक [10]सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति छ्यासठ सागरोपम है।
31. विधानं सामान्यादेकं सम्यग्दर्शनम्। द्वितयं निसर्गजाधिगमजभेदात्[11]। त्रितयं औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभेदात्। एवं संख्येया विकल्पा: शब्दत:। असंख्येया अनन्ताश्च भवन्ति श्रद्धातृश्रद्धातव्यभेदात्। एवमयं निर्देशादिविधिर्ज्ञानचारित्रयोर्जीवाजीवादिषु चागमानुसारेण योजयितव्य:।
31. भेदकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन सामान्यसे एक है। निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है। शब्दोंकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका है तथा श्रद्धान करनेवालोंकी अपेक्षा असंख्यात प्रकारका और श्रद्धान करने योग्य पदार्थोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका है। इसी प्रकार यह निर्देश आदि विधि ज्ञान और चारित्रमें तथा जीव और अजीव आदि पदार्थोंमें आगमके अनुसार लगा लेना चाहिए।
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अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ –दिर्वा। सम्यग्दर्शनं. क—मु.।
- ↑ नास्ति। कुत इत्युक्ते मनुष्य: कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति। क्षपणाप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्षु बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमितिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यक्स्त्रीषु द्रव्यदेवस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात्। एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम्। औप—मु.।
- ↑ –कानाम्। क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव। देव—मु.।
- ↑ –गतौ सामान्येन देवा-मु.।
- ↑ प्रति। विशेषेण भवन—मु.।
- ↑ संयतासंयतानां च मु.।
- ↑ –तयमस्ति ता.।
- ↑ 1. इस नियम के अनुसार जीवकाण्डकी ‘हेट्ठिमछप्पपुढवीणं’ इत्यादि गाथामें ‘सव्वइत्थीणं’ पाठ के साथ ‘संढइत्थीणं’ पाठ भी समझ लेना चाहिए।
- ↑ क्षायिक सम्यग्दृष्टि उसी भवमें, तीसरे भवमें या चौथे भवमें मोक्ष जाता है। जो चौथे भवमें मोक्ष जाता है वह पहले भोगभूमिमें उसके बाद देव पर्यायमें जन्म लेकर और अन्तमें मनुष्य होकर मोक्ष जाता है। जो तीसरे भवमें मोक्ष जाता है वह पहले नरकमें या देवपर्यायमें जन्म लेकर और अन्तमें मुनष्य होकर मोक्ष जाता है। यहाँ तीन और चार भवों में क्षायिक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेके भवका भी ग्रहण कर लिया है। संसारी जीवके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी यह उत्कृष्ट स्थिति तीन भव की अपेक्षा बतलायी है। प्रथम और अन्तकेदो भव मनुष्य पर्यायके लिये गये हैं और दूसरा भव देव पर्यायका लिया गया है। इन तीनों भवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागरोपम होती है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके पहले नहीं हो सकती, इसलिए उक्त कालमें से इतना काल कम करके क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटि वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम बतलायी है।
- ↑ खुद्दाबन्धमें क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छ्यासठ सागरोपम इस प्रकार घटित करके बतलाया है – एक जीव उपशम सम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर शेष भुज्यमान आयुसे कम बीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पुन: मनुष्यायुसे कम बाईस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर मनुष्यगतिमें जाकर भुज्यमान मनुष्यायुसे तथा दर्शनमोहकी क्षपणा पर्यन्त आगे भोगी जानेवाली मनुष्यायुसे कम चौबीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँसे फिर मनुष्य गतिमें आकर वहाँ वेदक सम्यक्त्वके कालमें अन्तर्मुहूर्त रह जाने पर दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करके कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया। यह जीव जब कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समयमें स्थित होता है तब क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छ्यासठ सागरोपम प्राप्त होता है।
- ↑ –गमजभेदात्। एवं मु.।