ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 1
From जैनकोष
251. आह, सम्यग्दर्शनस्य विषय भावेनोपदिष्टेषु जीवादिष्वादावुपन्यस्तस्य जीवस्य किं स्वतत्त्वमित्युच्यते –
251. सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जीवादि पदार्थों का कथन किया। उनके आदिमें जो जीव पदार्थ आया है उसका स्वतत्त्व क्या है यह बतलानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च।।1।।
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीवके स्वतत्त्व हैं।।1।।
252. आत्मनि कर्मण: स्वशक्ते: कारणवशादनुद्भूतिरुपशम:। यथा कतकादिद्रव्यसंबन्धादम्भसि पंकस्य उपशम:। क्षय आत्यन्तिकी निवृत्ति:। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पंकस्यात्यन्ताभाव:। उभयात्मको मिश्र:। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि कतकादिद्रव्यसंबन्धात्पंकस्य क्षीणाक्षीणवृत्ति:। द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मणां फलप्राप्तिरुदय:। द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुक: परिणाम:। उपशम: प्रयोजनमस्येत्यौपशमिक:। एवं क्षायिक: क्षायोपशमिक: औदयिक: पारिणामिकश्च। त एते पञ्च भावा असाधारणा जीवस्य स्वतत्त्वमित्युच्यन्ते।
252. जैसे कतक आदि द्रव्य के सम्बन्ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश से प्रकट न होना उपशम है। जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है वैसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है। जिस प्रकार उसी जल में कतकादि द्रव्य के सम्बन्ध से कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है उसी प्रकार उभयरूप भाव मिश्र है। द्रव्यादि निमित्त के वश से कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है। और जिनके होने में द्रव्य का स्वरूपलाभमात्र कारण है वह परिणाम है। जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है। इसी प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भावों की व्युत्पत्ति कहनी चाहिए। ये पाँच भाव असाधारण हैं, इसलिए जीव के स्वतत्त्व कहलाते हैं।
253. सम्यग्दर्शनस्य प्रकृतत्वात्तस्य त्रिषु विकल्पेषु औपशमिकमादौ लभ्यत इति तस्यादौ ग्रहणं क्रियते। तदनन्तरं क्षायिकग्रहणम्; तस्य प्रतियोगित्वात् संसार्यपेक्षया द्रव्यतस्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च। तत उत्तरं मिश्रग्रहणम्; तदुभयात्मकत्वात्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च। तेषां सर्वेषामनन्तगुणत्वाद् औदयिकपारिणा-मिकग्रहणमन्ते क्रियते। अत्र द्वन्द्वनिर्देश: कर्तव्य: - औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका इति। तथा सति द्वि: ‘च’शब्दो न कर्तव्यो भवति। नैवं शङ्क्यम्; अन्यगुणापेक्षया इति प्रतीयेत। वाक्ये पुन: सति ‘च’शब्देन प्रकृतोभयानुकर्ष: कृतो भवति। तर्हि क्षायोपशमिकग्रहणमेव कर्तव्यमिति चेत्। न; गौरवात्। मिश्रग्रहणं मध्ये क्रियते उभयापेक्षार्थम्। भव्यस्य औपशमिकक्षायिकौ भावौ। मिश्र: पुनरभव्यस्यापि भवति, औदयिकपारिणामिकाभ्यां सह भव्यस्यापीति। भावापेक्षया तल्लिङ्गसंख्याप्रसङ्ग: स्वतत्त्वस्येति चेत् ? न; उपात्तलिंगसंख्यत्वात्[1]। तद्भावस्तत्त्वम्। स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वमिति।
253.सम्यग्दर्शन का प्रकरण होने से उसके तीन भेदों में से सर्वप्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है अतएव औपशमिक भाव को आदि में ग्रहण किया है। क्षायिक भाव औपशमिक भावका प्रतियोगी है और संसारी जीवों की अपेक्षा औपशमिक सम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं अत: औपशमिक भाव के पश्चात् क्षायिक भाव को ग्रहण किया है। मिश्रभाव इन दोनोंरूप होता है और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से असंख्यातगुणे होते हें, अत: तत्पश्चात् मिश्रभाव को ग्रहण किया है। इन सबसे अनन्तगुणे होने के कारण इन सबके अन्त में औदयिक और पारिणामिक भावों को रखा है। शंका – यहाँ ‘औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका:’ इस प्रकार द्वन्द्व समास करना चाहिए। ऐसा करने से सूत्र में दो ‘च’ शब्द नहीं रखने पड़ते हैं। समाधान – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र में यदि ‘च’ शब्द न रखकर द्वन्द्व समास करते तो मिश्र की प्रतीति अन्य गुण की अपेक्षा होती। किन्तु वाक्य में ‘च’ शब्द के रहने पर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है। शंका – तो फिर सूत्र में ‘क्षायोपशमिक’ पद का ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – नहीं, क्योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव है; अत: इस दोष को दूर करनेके लिए क्षायोपशमिक पद का ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है। दोनों की अपेक्षा से मिश्र पद मध्य में रखा है। औपशमिक और क्षायिकभाव भव्य के ही होते हैं। किन्तु मिश्रभाव अभव्य के भी होता है। तथा औदयिक और पारिणामिक भावों के साथ भव्य के भी होता है। शंका – भावों के लिंग और संख्या के समान स्वतत्त्वपद का वही लिंग और संख्या प्राप्त होती है। समाधान – नहीं, क्योंकि जिस पद को जो लिंग और संख्या प्राप्त हो गयी है उसका वही लिंग और संख्या बनी रहती है। स्वतत्त्व का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम् – जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है और स्व तत्त्व स्वतत्त्व है।
विशेषार्थ – पाँच भावों में प्रारम्भ के चार भाव निमित्त की प्रधानता से कहे गये हैं और अन्तिम भाव योग्यता की प्रधानता से। जगमें जितने कार्य होते हैं उनका विभागीकरण इसी हिसाब से किया जाता है। कहीं निमित्तको प्रमुखता दी जाती है और कहीं योग्यताको। पर इससे अन्य वस्तुका कर्तृत्व अन्यमें मानना उचित नहीं। ऐसे विभागीकरणके दिखलानेका इतना ही प्रयोजन है कि जहाँ जिस कार्यका जो सुनिश्चित निमित्त हो उसका परिज्ञान हो जावे। यों तो कार्य अपनी योग्यतासे होता है, किन्तु जिसका जिसके होने के साथ सुनिश्चित अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह उसका सुनिश्चित निमित्त कहा जाता है। इस हिसाब से विचार करने पर औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये चार नैमित्तिक भाव कहलाते हैं।
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