ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 18
From जैनकोष
295. भावेन्द्रियमुच्यते -
295. अब भावेन्द्रियका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।18।।
लब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय है।।18।।
296. लम्भनं लब्धि:। का पुनरसौ ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेष:। यत्संनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मन: परिणाम उपयोग:। तदुभये भावेन्द्रियम्। इन्द्रियफलमुपयोग:, तस्य कथमिन्द्रियत्वम् ? कारणधर्मस्य कार्ये दर्शनात्। यथा घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति। स्वार्थस्य तत्र मुख्यत्वाच्च। इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमिति य: स्वार्थ: स उपयोगे[1] मुख्य:, ‘उपयोगलक्षणो जीव’ इति वचनात्। अत उपयोगस्येन्द्रियत्वं न्याय्यम्।
296. लब्धि शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है – लम्भनं लब्धि: - प्राप्त होना। शंका – लब्धि किसे कहते हैं ? समाधान – ज्ञानवरण कर्मके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते हैं। जिसके संसर्गसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचना करनेके लिए उद्यत होता है, तन्निमित्तक आत्माके परिणामको उपयोग कहते हैं। लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियाँ हैं। शंका – उपयोग इन्द्रियका फल है, वह इन्द्रिय कैसे हो सकता है ? समाधान – कारणका धर्म कार्यमें देखा जाता है। जैसे घटाकार परिणत हुआ ज्ञान भी घट कहलाता है, अत: इन्द्रियके फलको इन्द्रियके माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। दूसरे इन्द्रियका जो अर्थ है वह मुख्यतासे उपयोगमें पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि ‘इन्द्रके लिंगको इन्द्रिय कहते हैं’ यह जो इन्द्रिय शब्दका अर्थ है वह उपयोगमें मुख्य है, क्योंकि जीवका लक्षण उपयोग है’ ऐसा वचन है, अत: उपयोगको इन्द्रिय मानना उचित है।
विशेषार्थ – ज्ञानकी अमुक पर्यायको प्रकट न होने देना विवक्षित ज्ञानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका काम है। किन्तु जिस जीवके विवक्षित ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है उसके उस ज्ञानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदय न होनेसे विवक्षित ज्ञानके प्रकाशमें आनेकी योग्यता होती है और इसी योग्यताका नाम लब्धि है। ऐसी योग्यता एक साथ सभी क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी हो सकती है, किन्तु उपयोगमें कालमें एक ही ज्ञान आता है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षायोपशमिक ज्ञानकी जाननेके सन्मुख हुई पर्यायका नाम लब्धि न होकर क्षयोपशमविशेषका नाम लब्धि है और उपयोग ज्ञानकी उपयुक्त पर्यायका नाम है। यही कारण है कि लब्धि एक साथ अनेक ज्ञानोंकी हो सकती है पर उपयोग एक कालमें एक ही ज्ञानका होता है। पहले प्रथम अध्याय सूत्र 14 में यह कह आये हैं कि मतिज्ञान इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होता है। इससे ज्ञात होता है कि उपयोग स्वरूप ज्ञानकी इन्द्रिय संज्ञा न होकर जो उपयोगरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके होनेमें साधकतम करण है उसीकी इन्द्रिय संज्ञा है, इसलिए वहाँ निर्वृत्ति, उपकरण और लब्धिको इन्द्रिय कहना तो ठीक है, क्योंकि ये उपयोगरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके होनेमें साधकतम करण हैं पर स्वयं उपयोगको इन्द्रिय कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय व्यापारका फल है। यह एक शंका जिसका समाधान पूज्यपाद स्वामीने दो प्रकारसे किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि कारणके धर्म इन्द्रियत्वका कार्यमें उपचार करके उपयोगको भी इन्द्रिय कहा है। अर्थात् उपयोग स्वयं इन्द्रिय नहीं है, किन्तु इन्द्रियके निमित्तसे वह होता है, इसलिए यहाँ उपचारसे उसे इन्द्रिय कहा है। यह प्रथम समाधान है। दूसरा समाधान करते हुए उन्होंने जो कुछ लिखा है उसका भाव है कि जिससे इन्द्र अर्थात् आत्माकी पहचान हो वह इन्द्रिय कहलाती है और ऐसी पहचान करानेवाली वस्तु निज अर्थ होनी चाहिए। यदि इस दृष्टिसे देखा जाता है तो इन्द्रिय शब्दका मुख्य वाच्य उपयोग ही ठहरता है, क्योंकि वह आत्माका निज अर्थ है। यही कारण है कि यहाँ उपयोगको भी इन्द्रिय कहा है। तात्पर्य यह है कि निमित्तकी अपेक्षा विचार करनेपर निर्वृत्ति, उपकरण और लब्धिको इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है और स्वार्थकी अपेक्षा विचार करनेपर उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। पहले प्रथम अध्यायमें केवली निमित्तकी अपेक्षा इन्द्रिय शब्दका व्यवहार किया गया था और यहाँ निमित्त और मुख्यार्थ दोनोंको ध्यानमें रखकर इन्द्रियके भेद दिखलाये गये हैं इसलिए कोई विरोध नहीं है।
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सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ --योगो मुख्य: दि. 1, दि. 2, मु.। 2. ‘बुद्धीन्द्रियाणि चक्षु:श्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि।‘ सां.-कौ., श्लो. 6। घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्य:।’ –न्या. सू. 1, 1, 12।