ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 24
From जैनकोष
307. एवमेतेषु संसारिषु द्विभेदेषु इन्द्रियभेदात्पञ्चविधेषु ये पञ्चेन्द्रियास्तद्भेदस्यानुक्तस्य प्रतिपादनार्थमाह –
307. इस प्रकार इन दो प्रकारके और इन्द्रिय-भेदोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारके संसारी जीवोंमें जो पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके भेद नहीं कहे, अत: उनका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
संज्ञिन: समनस्का:।।24।।
मनवाले जीव संज्ञी जीव होते हैं।।24।।
308. मनो व्याख्यातम्। सह तेन ये वर्तन्ते ते समनस्का:। संज्ञिन[1] इत्युच्यन्ते। पारिशेष्यादितरे संसारिण: प्राणिनोऽसंज्ञिन इति सिद्धम्। ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम्[2]। यतो मनोव्यापारो हिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात्। संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वन्त: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्ग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्; सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसङ्ग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत्। तुल्यम्। तस्मात्समनस्का इत्युच्यते। एवं च कृत्वा गर्भाण्डजमूर्च्छितसुषुप्त्याद्यवस्थासु हिताहित परीक्षाभावेऽपि मन:संनिधाना-त्संज्ञित्वमुपपन्नं भवति।
308. मनका व्याख्यान कर आये हैं। उसके साथ जो रहते हैं वे समनस्क कहलाते हैं। और उन्हें ही संज्ञी कहते हैं। परिशेष न्यायसे यह सिद्ध हुआ कि इनसे अतिरिक्त जितने संसारी जीव होते हैं वे सब असंज्ञी होते हैं। शंका – सूत्रमें ‘संज्ञिन:’ इतना पद देनेसे ही काम चल जाता है, अत: ‘समनस्का:’ यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हितकी प्राप्ति और अहितके त्यागकी परीक्षा करनेमें मनका व्यापार होता है ओर यही संज्ञा है ? समाधान – यह कहना उचित नहीं, क्योंकि संज्ञा शब्दके अर्थमें व्यभिचार पाया जाता है। अर्थात् संज्ञा शब्दके अनेक अर्थ हैं। संज्ञाका अर्थ नाम है। यदि नामवाले जीव संज्ञी माने जायँ तो सब जीवोंको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। संज्ञाका अर्थ यदि ज्ञान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञानस्वभाव होनेसे सबको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयोंकी अभिलाषाको संज्ञा कहा जाता है तो भी पहलेके समान दोष प्राप्त होता है। अर्थात् आहारादि विषयक अभिलाषा सबके पायी जाती है, इसलिए भी सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्रापत होता है। चूँकि ये दोष न प्राप्त हों अत: सूत्रमें ‘समनस्का:’ यह पद रखा है। इससे यह लाभ है कि गर्भज, अण्डज, मूर्च्छित और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें हिताहितकी परीक्षाके न होनेपर भी मनके सम्बन्घसे संज्ञीपना बन जाता है। विशेषार्थ – प्राय: एकेन्द्रिय आदि प्रत्येक जीव अपने इष्ट विषयमें प्रवृत्ति करता है और अनिष्ट विषयसे निवृत्त होता है, फिर भी मनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है सो इसका कारण यह है कि तुलनात्मक अध्ययन, लोक-परलोकका विचार, हिताहितका विवेक आदि कार्य ऐसे ळैं जो मनके बिना नहीं हो सकते। इसीसे मनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है। यह मन जिनके होता है वे संज्ञी होते हैं अन्य नहीं। जीवोंका संज्ञी और असंज्ञी यह भेद पंचेन्द्रिय जीवोंमें ही पाया जाता है। अन्य एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीव तो असंज्ञी ही होते हैं। अर्थात् उनके मन न होनेसे वे उक्त प्रकारके ज्ञानसे वंचित रहते हेा।