ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 38
From जैनकोष
334. यदि परम्परं सूक्ष्मम्, प्रदेशतोऽपि[1] न्यूनं परम्परं हीनमिति विपरीतप्रतिपत्तिनिवृत्त्यर्थमाह -
334. यदि ये उत्तरोत्तर शीरर सूक्ष्म हैं तो प्रदेशोंकी अपेक्षा भी उत्तरोत्तर हीन होंगे। इस प्रकार विपरीत ज्ञानका निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हेा –
प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात्।।38।।
तैजससे पूर्व तीन शरीरोंमें आगे-आगेका शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है।।38।।
335. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा: परमाणव:। संख्यामतीतोऽसंख्येय:। असंख्येयो गुणोऽस्य तदिदमसंख्येयगुणम्। कुत: ? प्रदेशत:। नावगाहत:। परम्परमित्यनुवृत्तेरा कार्मणात्प्रसङ्गे तन्निवृत्त्यर्थमाह प्राक्तैजसादिति। औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेशं वैक्रियिकम्। वैक्रियिकादसंख्येयगुण-प्रदेशमाहारकमिति। को गुणकार:। पल्योपमासंख्येयभाग:। यद्येवम्, परम्परं महापरिमाणं प्राप्नोति[2]? नैवम्; बन्धविशेषात्परिमाणभेदाभावस्तूलनिचयाय:पिण्डवत्।
335. प्रदेश शब्दकी व्युत्पत्ति ‘प्रदिश्यन्ते’ होती है। इसका अर्थ परमाणु है। संख्यातीतको असंख्येय कहते हैं। जिसका गुणकार असंख्यात है वह असंख्येयगुणा कहलाता है। शंका – किसकी अपेक्षा ? समाधान – प्रदेशोंकी अपेक्षा, अवगाहनकी अपेक्षा नहीं। पूर्व सूत्रमें ‘परम्परम्’ इस पदकी अनुवृत्ति होकर असंख्येयगुणत्वका प्रसंग कार्मण शरीर तक प्राप्त होता है अत: उसकी निवृत्तिके लिए सूत्रमें ‘प्राक् तैजसात्’ पद रखा है। अर्थात् तैजस शरीरसे पूर्ववर्ती शरीर तक ये शरीर उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं। औदारिक शरीरसे वैक्रियिक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेशवाला है। शंका – गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान – पल्यका असंख्यातवाँ भाग। शंका – यदि ऐसा है तो उत्तरोत्तर एक शरीरसे दूसरा शरीर महापरिमाणवाला प्राप्त होता है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्धविशेषके कारण परिमाणमें भेद नहीं होता। जैसे रुईका ढेर और लोहे का गोला।