ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 41
From जैनकोष
340. आह किमेतावानेव विशेष उत कश्चिदन्योऽप्यस्तीत्याह -
340. इन दोनों शरीरोंमें क्या इतनी ही विशेषता है या और भी कोई विशेषता है। इसी बातको बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं –
अनादिसंबन्धे च।।41।।
आत्माके साथ अनादि सम्बन्धवाले हैं।।41।।
341. ‘च’ शब्दो विकल्पार्थ:। अनादिसंबन्धे सादिसंबन्धे चेति। कार्यकारणभावसंतत्या अनादिसंबन्धे, विशेषापेक्षया सादिसंबन्धे[1] च बीजवृक्षवत्। यथौदारिकवैक्रियिकाहारकाणि जीवस्य कदाचित्कानि, न तथा तैजसकार्मणे। नित्यसंबन्धिनी हि ते आ संसारक्षयात्।
341. सूत्रमें ‘च’शब्द विकल्पको सूचित करनेके लिए दिया है। जिससे यह अर्थ हुआ कि तैजस और कार्मण शरीरका अनादि सम्बन्ध है और सादि सम्बन्ध भी है। कार्यकारणभावकी परम्पराकी अपेक्षा अनादि सम्बन्धवाले हैं और विशेषकी अपेक्षा सादि सम्बन्धवाले हैं। यथा बीज और वृक्ष। जिस प्रकार औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर जीवके कदाचित् होते हैं उस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर नहीं हैं। संसारका क्षय होने तक उनका जीवके साथ सदा सम्बन्ध है।
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- ↑ --संबन्धेऽपि च मु.।