ग्रन्थ:सूत्रपाहुड़ गाथा 14
From जैनकोष
इच्छायारमहत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं ।
ठाणे ट्ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होदि ॥१४॥
इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थित: य: स्फुटं त्यजति कर्मं ।
स्थाने स्थितसम्यक्त्व: परलोकसुखङ्कर: भवति ॥१४॥
आगे इच्छाकार योग्य श्रावक का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - जो पुरुष जिनसूत्र में तिष्ठता हुआ इच्छाकार शब्द के महान प्रधान अर्थ को जानता है और स्थान जो श्रावक के भेदरूप प्रतिमाओं में तिष्ठता हुआ सम्यक्त्व सहित वर्तता है, आरंभ आदि कर्मों को छोड़ता है, वह परलोक में सुख प्रदान करनेवाला होता है ।
भावार्थ - - उत्कृष्ट श्रावक को इच्छाकार करते हैं सो जो इच्छाकार के प्रधान अर्थ को जानता है और सूत्र अनुसार सम्यक्त्व सहित आरंभादिक छोड़कर उत्कृष्ट श्रावक होता है, वह परलोक में स्वर्ग का सुख पाता है ॥१४॥