ग्रन्थ:सूत्रपाहुड़ गाथा 8
From जैनकोष
हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ।
तह वि ण पावइ सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥८॥
हरिहरतुल्योऽपि नर: स्वर्गं गच्छति एति भवकोटि: ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणित: ॥८॥
आगे कहते हैं कि जिनूसत्र से भ्रष्ट हरि-हरादिक के तुल्य हो तो भी मोक्ष नहीं पाता है -
अर्थ - जो मनुष्य सूत्र के अर्थ पद से भ्रष्ट है, वह हरि अर्थात् नारायण हर अर्थात् रुद्र इनके समान भी हो, अनेक ऋद्धि संयुक्त हो तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है । यदि कदाचित् दान पूजादिक करके पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग चला जावे तो भी वहाँ से चय कर करोड़ों भव लेकर संसार ही में रहता है, इसप्रकार जिनागम में कहा है ।
भावार्थ - - श्वेताम्बरादिक इसप्रकार कहते हैं कि गृहस्थ आदि वस्त्रसहित को भी मोक्ष होता है, इसप्रकार सूत्र में कहा है, उसका इस गाथा में निषेध का आशय है कि जो हरिहरादिक बड़ी सामर्थ्य के धारक भी हैं तो भी वस्त्रसहित तो मोक्ष नहीं पाते हैं । श्वेताम्बरों ने सूत्र कल्पित बनाये हैं उनमें यह लिखा है सो प्रमाणभूत नहीं है, वे श्वेताम्बर जिनसूत्र के अर्थ पद से च्युत हो गये हैं ऐसा जानना चाहिए ॥८॥