चारित्रपाहुड गाथा 10
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो सम्यक्त्व के आचरण से भ्रष्ट हैं और वे संयम का आचरण करते हैं तो भी मोक्ष नहीं पाते हैं -
सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जे वि णरा ।
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं ।।१०।।
सम्यक्त्वचरणभ्रष्टा: संयमचरणं चरन्ति येsपि नरा: ।
अज्ञानज्ञानमूढा: तथाsपि न प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।।१०।।
सम्यक्चरण से भ्रष्ट पर संयमचरण आचरें जो ।
अज्ञान मोहित मती वे निर्वाण को पाते नहीं ।।१०।।
अर्थ - जो पुरुष सम्यक्त्वाचरण चारित्र से भ्रष्ट है और संयम का आचरण करते हैं तो भी वे अज्ञान से मूढ़दृष्टि होते हुए निर्वाण को नहीं पाते हैं ।
भावार्थ - सम्यक्त्वाचरण चारित्र के बिना संयमचरण चारित्र निर्वाण का कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान के बिना तो ज्ञान मिथ्या कहलाता है सो इसप्रकार सम्यक्त्व के बिना चारित्र के भी मिथ्यापना आता है ।।१०।।