चारित्रपाहुड गाथा 25
From जैनकोष
आगे तीन गुणव्रतों को कहते हैं -
दिसिविदि सिमाण पढं अणत्थदंडस्स वज्जणं बिदियं ।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।।२५।।
दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम् ।
भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि ।।२५।।
दिशि-विदिश का परिमाण दिग्व्रत अर अनर्थकदण्डव्रत ।
परिमाण भोगोपभोग का ये तीन गुणव्रत जिन कहें ।।२५।।
अर्थ - दिशा विदिशामें गमन का परिमाण वह प्रथम गुणव्रत है, अनर्थदण्ड का वर्जना द्वितीय गुणव्रत है और भोगोपभोग का परिमाण तीसरा गुणव्रत है, इसप्रकार ये तीन गुणव्रत हैं ।
भावार्थ - यहाँ गुण शब्द तो उपकार का वाचक है, ये अणुव्रतों का उपकार करते हैं । दिशा विदिशा अर्थात् पूर्व दिशादिक में गमन करने की मर्यादा करे । अनर्थदण्ड अर्थात् जिन कार्यो में अपना प्रयोजन न सधे इसप्रकार पापकार्यो को न करे । यहाँ कोई पूछे - प्रयोजन के बिना तो कोई भी जीव कार्य नहीं करता है, कुछ प्रयोजन विचार करके ही करता है फिर अनर्थदण्ड क्या ? इसका समाधान - सम्यग्दृष्टि श्रावक होता है वह प्रयोजन अपने पद के योग्य विचारता है, पद के सिवाय सब अनर्थ है । पापी पुरुषों के तो सब ही पाप प्रयोजन है, उसकी क्या कथा ? भोग कहने से भोजनादिक और उपभोग कहने से स्त्री, वस्त्र, आभूषण, वाहनादिक का परिमाण करे -
इसप्रकार जानना ।।२५।।