चारित्रपाहुड गाथा 3
From जैनकोष
आगे सम्यग्दर्शनादि तीन भावों का स्वरूप कहते हैं -
जं जाणइ तं णाणं जं पेच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स णिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ।।३।।
यज्जानाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् ।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम् ।।३।।
जो जानता वह ज्ञान है जो देखता दर्शन कहा ।
समयोग दर्शन-ज्ञान का चारित्र जिनवर ने कहा ।।३।।
अर्थ - जो जानता है वह ज्ञान है । जो देखता है वह दर्शन है - ऐसे कहा है । ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है ।
भावार्थ - जाने वह तो ज्ञान और देखे, श्रद्धान हो, वह दर्शन तथा दोनों एकरूप होकर स्थिर होना चारित्र है ।।३।।