चारित्रपाहुड गाथा 32
From जैनकोष
आगे इन पाँच व्रतों की पच्चीस भावना कहते हैं, उनमें से प्रथम अहिंसाव्रत की पाँच भावना कहते हैं -
वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो ।
अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होंति ।।३२।।
वचोगुप्ति: मनोगुप्ति: ईर्यासमिति: सुदाननिक्षेप: ।
अवलोक्य भोजनेन अहिंसाया भावना भवंति ।।३२।।
मनोगुप्ती वचन गुप्ती समिति ईर्या ऐषणा ।
आदाननिक्षेपण समिति ये हैं अहिंसा भावना ।।३२।।
अर्थ - वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ऐसे दो तो गुप्तियाँ, ईर्यासमिति, भलेप्रकार कमंडलु आदि का ग्रहण निक्षेप यह आदाननिक्षेपणा समिति और अच्छी तरह देखकर विधिपूर्वक शुद्ध भोजन करना, यह एषणा समिति - इसप्रकार ये पाँच अहिंसा महाव्रत की भावना हैं ।
भावार्थ - बारबार उस ही के अभ्यास करने का नाम भावना है सो यहाँ प्रवृत्ति निवृत्ति में हिंसा लगती है, उसका निरन्तर यत्न रखे तब अहिंसाव्रत का पालन हो, इसलिए यहाँ योगों की निवृत्ति करनी तो भलेप्रकार गुप्तिरूप करनी और प्रवृत्ति करनी तो समितिरूप करनी, ऐसे निरन्तर अभ्यास से अहिंसा महाव्रत दृढ़ रहता है, इसी आशय से इनको भावना कहते हैं ।।३२।।