चारित्रपाहुड गाथा 33
From जैनकोष
आगे सत्य महाव्रत की भावना कहते हैं -
कोहभयहासलोहा मोहा विवरीयभावणा चेव ।
विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होंति ।।३३।।
क्रोधभयहास्यलोभमोहा विपरीतभावना: च एव ।
द्वितीयस्य भावना इमा पंचैव च तथा भवंति ।।३३।।
सत्यव्रत की भावनायें क्रोध लोभरु मोह भय ।
अर हास्य से है रहित होना ज्ञानमय आनन्दमय ।।३३।।
अर्थ - क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह इनसे विपरीत अर्थात् उल्टा इनका अभाव ये द्वितीय व्रत सत्य महाव्रत की भावना हैं ।
भावार्थ - असत्य वचन की प्रवृत्ति क्रोध से, भय से, हास्य से, लोभ से और परद्रव्य के मोहरूप मिथ्यात्व से होती है, इनका त्याग हो जाने पर सत्य महाव्रत दृढ़ रहता है । तत्त्वार्थसूत्र में पाँचवीं भावना अनुवीचीभाषण कही है सो इसका अर्थ यह है कि जिनसूत्र के अनुसार वचन बोले और यहाँ मोह का अभाव कहा, वह मिथ्यात्व के निमित्त से सूत्रविरुद्ध बोलता है, मिथ्यात्व का अभाव होने पर सूत्रविरुद्ध नहीं बोलता है, अनुवीचीभाषण का भी यही अर्थ हुआ इसमें अर्थभेद नहीं है ।।३३।।