चारित्रपाहुड गाथा 34
From जैनकोष
आगे अचौर्य महाव्रत की भावना कहते हैं -
सुण्णायारणिवासो १विमोचियावास जं परोधं च ।
एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मीसंविसंवादो ।।३४।।
शून्यागारनिवास: विमोचितावास: यत् परोधं च ।
एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवाद: ।।३४।।
हो विमोचितवास शून्यागार हो उपरोध बिन ।
हो एषणाशुद्धी तथा संवाद हो विसंवाद बिन ।।३४।।
अर्थ - शून्यागार अर्थात् गिरि, गुफा, तरु, कोटरादि में निवास करना, विमोचितावास अर्थात् जिसको लोगों ने किसी कारण से छोड़ दिया हो - इसप्रकार के गृह-ग्रामादिक में निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरे की रुकावट न हो, वस्तिकादिक को अपनाकर दूसरे को रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और साधर्मियों से विसंवाद नहीं करना - ये पाँच भावना तृतीय महाव्रत की हैं ।
भावार्थ - मुनियों की वस्तिका में रहना और आहार लेना ये दो प्रवृत्तियाँ अवश्य होती हैं । लोक में इन्हीं के निमित्त अदत्त का आदान होता है । मुनियों को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए, जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इसप्रकार लें, जिसमें अदत्त का दोष न लगे तथा दोनों की प्रवृत्ति में साधर्मी आदिक से विसंवाद न उत्पन्न हो । इसप्रकार ये पाँच भावना कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है ।।३४।।