चारित्रपाहुड गाथा 35
From जैनकोष
आगे ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना कहते हैं -
महिलालोयणपुव्वरइसरणसंसत्तवसहिविकहाहिं ।
पुटि्ठयरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ।।३५।।
महिलालोकनपूर्वरतिस्मरणसंसक्तवसतिविकथाभिः ।
पौष्टिकरसै: विरत: भावना: पंचापि तुर्ये ।।३५।।
त्याग हो आहार पौष्टिक आवास महिलावासमय ।
भोगस्मरण महिलावलोकन त्याग हो विकथा कथन ।।३५।।
अर्थ - स्त्रियों का अवलोकन अर्थात् रागभावसहित देखना, पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को स्मरण करना, स्त्रियों से संसक्त वस्तिका में रहना, स्त्रियों की कथा करना, पौष्टिक रसों का सेवन करना, इन पाँचों से विकार उत्पन्न होता है, इसलिए इनसे विरक्त रहना, ये पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं ।
भावार्थ - कामविकार के निमित्तों से ब्रह्मचर्यव्रत भंग होता है, इसलिए स्त्रियों को रागभाव से देखना इत्यादि निमित्त कहे, इनसे विरक्त रहना, प्रसंग नहीं करना, इससे ब्रह्मचर्य महाव्रत दृढ़ रहता है ।।३५।।