चारित्रपाहुड गाथा 37
From जैनकोष
आगे पाँच समितियों को कहते हैं -
इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो ।
संजमसोहिणिमित्तं खंति जिणा पंच समिदीओ ।।३७।।
ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेप: ।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिना: पंच समिती: ।।३७।।
ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेपण सही ।
एवं प्रतिष्ठापना संयमशोधमय समिती कही ।।३७।।
अर्थ - ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना, ये पाँच समितियाँ संयम की शुद्धता के लिए कारण हैं, इसप्रकार जिनदेव कहते हैं ।
भावार्थ - मुनि पंचमहाव्रतस्वरूप संयम का साधन करते हैं, उस संयम की शुद्धता के लिए पाँच समितिरूप प्रवर्तते हैं इसी से इसका नाम सार्थक है - ``सं अर्थात् सम्यक्प्रकार `इति' अर्थात् प्रवृत्ति जिसमें हो सो समिति है । चलते समय जूड़ा प्रमाण (चार हाथ) पृथ्वी देखता हुआ चलता है, बोले तब हितमितरूप वचन बोलता है, आहार लेवे तो छियालीस दोष, बत्तीस अंतराय टालकर, चौदह मल दोष रहित शुद्ध आहार लेता है, धर्मोपकरणों को उठाकर ग्रहण करे सो यत्नपूर्वक लेते हैं, ऐसे ही कुछ क्षेपण करे तब यत्नपूर्वक क्षेपण करते हैं, इसप्रकार निष्प्रमाद वर्ते तब संयम का शुद्ध पालन होता है, इसलिए पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है । इसप्रकार संयमचरण चारित्र की शुद्ध प्रवृत्ति का वर्णन किया ।।३७।।