चारित्रपाहुड गाथा 38
From जैनकोष
अब आचार्य निश्चय चारित्र को मन में धारण कर ज्ञान का स्वरूप कहते हैं -
भव्वजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं ।
णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ।।३८।।
भव्यजनबोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरै: यथा भणितं ।
ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ।।३८।।
सब भव्यजन संबोधने जिननाथ ने जिनमार्ग में ।
जैसा बताया आतमा हे भव्य ! तु जानो उसे ।।३८।।
अर्थ - जिनमार्ग में जिनेश्वर देव ने भव्यजीवों के संबोधने के लिए जैसा ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप कहा है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसको हे भव्य जीव ! तू जान ।
भावार्थ - ज्ञान को और ज्ञान के स्वरूप को अन्य मतवाले अनेकप्रकार से कहते हैं, वैसा ज्ञान और वैसा ज्ञान का स्वरूप नहीं है । जो सर्वज्ञ वीतराग देव भाषित ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप है वही निर्बाध सत्यार्थ है और ज्ञान है वही आत्मा है तथा आत्मा का स्वरूप है, उसको जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्यों से रागद्वेष नहीं करे वही निश्चय चारित्र है इसलिए पूर्वोक्त महाव्रतादिक की प्रवृत्ति करके उस ज्ञानस्वरूप आत्मा में लीन होना, इसप्रकार उपदेश है ।।३८।।