चारित्रपाहुड गाथा 41
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि इसप्रकार निश्चयचारित्ररूप ज्ञान का स्वरूप कहा, जो इसको पाते हैं, वे शिवरूप मन्दिर में रहनेवाले होते हैं -
१पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविशुद्धभावसंजुता ।
होंति सिवालयवासी तिहुवणचूड़ामणी सिद्धा ।।४१।।
२प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ता: ।
भवंति शिवालयवासिन: त्रिभुवनचूड़ामणय: सिद्धा: ।।४१।।
ज्ञानजल में नहा निर्मल शुद्ध परिणति युक्त हो ।
त्रैलोक्यचूड़ामणि बने एवं शिवालय वास हो ।।४१।।
अर्थ - जो पुरुष इस जिनभाषित ज्ञानरूप जल को प्राप्त करके अपने निर्मल भले प्रकार विशुद्धभाव संयुक्त होते हैं, वे पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि और शिवालय अर्थात् मोक्षरूपी मन्दिर में रहनेवाले सिद्ध परमेष्ठी होते हैं ।
भावार्थ - जैसे जल से स्नान करके शुद्ध होकर उत्तम पुरुष महल में निवास करते हैं, वैसे ही यह ज्ञान जल के समान है और आत्मा के रागादिक मैल लगने से मलिनता होती है, इसलिए इस ज्ञानरूप जल से रागादिक मल को धोकर जो अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं, वे मुक्तिरूप महल में रहकर आनन्द भोगते हैं, उनको तीन भुवन के शिरोणि सिद्ध कहते हैं ।।४१।।