चारित्रपाहुड गाथा 45
From जैनकोष
आगे इस चारित्रपाहुड को भाने का उपदेश और इसका फल कहते हैं -
भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुणं चेव ।
लहु चउगइ चइऊणं अइरेणsपुणब्भवा होई ।।४५।।
भावयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव ।
लघु चतुर्गती: त्यक्त्वा अचिरेण अपुनर्भवा: भवत ।।४५।।
अर्थ - यहाँ आचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! यह चरण अर्थात् चारित्रपाहुड हमने स्फुट
प्रगट करने हेतु बनाया है, उसको तु अपने शुद्धभाव से भाओ । अपने भावों में बारम्बार अभ्यास
करो, इससे शीघ्र ही चार गतियों को छोड़कर अपुनर्भव मोक्ष तुम्हें होगा, फिर संसार में जन्म नहीं पाओगे ।
भावार्थ - इस चारित्रपाहुड को बांचना, पढ़ना, धारण करना, बारम्बार भाना, अभ्यास करना - यह उपदेश है, इससे चारित्र का स्वरूप जानकर धारण करने की रुचि हो, अंगीकार करे तब चार गतिरूप संसार के दु:ख से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त हो, फिर संसार में जन्म धारण नहीं करे, इसलिए जो कल्याण को चाहते हैं, वे इसप्रकार करो ।।४५।।
( छप्पय ) चारित दोय प्रकार देव जिनवर ने भाख्या । समकित संयम चरण ज्ञानपूरव तिस राख्या ।।
जे नर सरधावान याहि धारैं विधि सेती । निश्चय अर व्यवहार रीति आगम में जेती ।।
जब जगधंधा सब मेटि कैं निजस्वरूप में थिर रहै । तब अष्टकर्मकूं नाशि कै अविनाशी शिव कूं लहै ।।१।।
ऐसे सम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र दो प्रकार के चारित्र का स्वरूप इस प्राभृत में कहा । ( दोहा ) जिनभाषित चारित्रकूं जे पालैं मुनिराज । तिनि के चरण नमूं सदा पाऊँ तिनि गुणसाज ।।२।।
इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित चारित्रप्राभृत की पण्डित जयचन्द्र छाबड़ा कृत देशभाषावचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।३।।