चारित्रपाहुड गाथा 6
From जैनकोष
आगे सम्यक्त्वचरण चारित्र के मल दोषों का परिहार करके आचरण करना कहते हैं -
एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ ।
परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ।।६।।
एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् ।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन ।।६।।
सम्यक्त्व के जो दोष मल शंकादि जिनवर ने कहे ।
मन-वचन-तन से त्याग कर सम्यक्त्व निर्मल कीजिए ।।६।।
अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्र को जानकर मिथ्यात्व कर्म के उदय से हुए शंकादिक दोष सम्यक्त्व को अशुद्ध करनेवाले मल हैं, ऐसा जिनदेव ने कहा है, इनको मन, वचन, काय के तीनों योगों से छोड़ना ।
भावार्थ - सम्यक्त्वाचरण चारित्र, शंकादिदोष सम्यक्त्व के मल हैं उनको त्यागने पर शुद्घ होता है, इसलिए इनको त्याग करने का उपदेश जिनदेव ने किया है । वे दोष क्या हैं वह कहते हैं - जिनवचन में वस्तु का स्वरूप कहा, उसमें संशय करना शंका दोष है, इसके होने पर सप्तभय के निमित्त से स्वरूप से चिग जाय वह भी शंका है । भोगों की अभिलाषा कांक्षा दोष है, इसके होने पर भोगों के लिए स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है । वस्तु के स्वरूप अर्थात् धर्म में ग्लानि करना जुगुप्सा दोष है, इसके होने पर धर्मात्मा पुरुषों के पूर्व कर्म के उदय से बाह्य मलिनता देखकर मत से चिग जाना होता है । देव, गुरु, धर्म तथा लौकिक कार्यो में मूढता अर्थात् यथार्थ स्वरूप को न जानना सो मूढदृष्टि दोष है, इसके होने पर अन्य लौकिकजनों से माने हुए सरागी देव, हिंसाधर्म और सग्रन्थ गुरु तथा लोगों के बिना विचार किये ही माने गये अनेक क्रियाविशेषों से विभवादिक की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करने से यथार्थ मत भ्रष्ट हो जाता है । धर्मात्मा पुरुषों में कर्म के उदय से कुछ दोष उत्पन्न हुआ देखकर उनकी अवज्ञा करना सो अनुपगूहन दोष है, इसके होने पर धर्म से छूट जाना होता है । धर्मात्मा पुरुषों को कर्म के उदय के वश से धर्म से चिगते देखकर उनकी स्थिरता न करना अस्थितिकरण दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसको धर्म से अनुराग नहीं है और अनुराग का न होना सम्यक्त्व में दोष है । धर्मात्मा पुरुषों से विशेष प्रीति न करना अवात्सल्य दोष है, इसके होने पर सम्यक्त्व का अभाव प्रगट सूचित होता है । धर्म का माहात्म्य शक्ति के अनुसार प्रगट न करना अप्रभावना दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसके धर्म के माहात्म्य की श्रद्धा प्रगट नहीं हुई है । इसप्रकार ये आठ दोष सम्यक्त्व के मिथ्यात्व के उदय से (उदय के वश होने से) होते हैं, जहाँ ये तीव्र हों वहाँ तो मिथ्यात्व प्रकृति का उदय बताते हैं, सम्यक्त्व का अभाव बताते हैं और जहाँ कुछ मन्द अतिचाररूप हों तो सम्यक्त्व प्रकृति नामक मिथ्यात्व की प्रकृति के उदय से हो वे अतिचार कहलाते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का सद्भाव होता है, परमार्थ से विचार करें तो अतिचार त्यागने ही योग्य हैं । इन दोषों के होने पर अन्य भी मल प्रगट होते हैं, वे तीन मूढताएँ हैं - १. देवमूढता, २. पाखण्डूढता, ३. लोकमूढता । किसी वर की इच्छा से सरागी देवों की उपासना करना उनकी पाषाणादि में स्थापना करके पूजना देवमूढता है । ढोंगी गुरुओं में मूढता-परिग्रह, आरंभ, हिंसादि सहित पाखण्डी (ढोंगी) भेषधारियों का सत्कार पुरस्कार करना पाखण्डूढता है । लोकमूढता- अन्य मतवालों के उपदेश से तथा स्वयं ही बिना विचारे कुछ प्रवृत्ति करने लग जाय वह लोकमूढता है, जैसे सूर्य को अर्घ देना, ग्रहण में स्नान करना, संक्रांति में दान करना, अग्नि का सत्कार करना, देहली, घर, कुंआ पूजना, गाय की पूंछ को नमस्कार करना, गाय के मूत्र को पीना, रत्न, घोड़ा आदि वाहन, पृथ्वी, वृक्ष, शस्त्र, पर्वत आदिक की सेवा-पूजा करना, नदीसमुद्र आदि को तीर्थ मानकर उनमें स्नान करना, पर्वत से गिरना, अग्नि में प्रवेश करना इत्यादि जानना । छह अनायतन हैं - कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके भक्त ऐसे छह हैं, इनको धर्म के स्थान जानकर इनकी मन से प्रशंसा करना, वचन से सराहना करना, काय से वंदना करना, ये धर्म के स्थान नहीं हैं, इसलिए इनको अनायतन कहते हैं । जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य, इनका गर्व करना आठ मद हैं, जाति मातापक्ष है, लाभ धनादिक कर्म के उदय के आश्रय है, कुल पितापक्ष है, रूप कर्मोदयाश्रित है, तप अपने स्वरूप को साधने का साधन है, बल कर्मोदयाश्रित है, विद्या कर्म के क्षयोपशमाश्रित है, ऐश्वर्य कर्मोदयाश्रित है, इनका गर्व क्या? परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले का गर्व करना सम्यक्त्व का अभाव बताता है अथवा मलिनता करता है । इसप्रकार ये पच्चीस सम्यक्त्व के मल दोष हैं, इनका त्याग करने पर सम्यक्त्व शुद्ध होता है, वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र का अंग है ।।६।।