द्रव्य आस्रव
From जैनकोष
नयचक्रवृहद् गाथा 153
लद्धूण तं णिमित्तं जोगं जं पुग्गले पदेसत्थं परणमदि कम्मभावं तं पि हु दव्वासवं बीजं ॥153॥
= अपने-अपने निमित्त रूप योग को प्राप्त करके आत्म प्रदेशों मे स्थित पुद्गल कर्म भाव रूप से परिणमित हो जाते हैं, उसे द्रव्यास्रव कहते हैं ॥153॥
द्रव्यसंग्रह/मूल 31
णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥31॥
= ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेंद्र देव ने कहा है ॥31॥
अधिक जानकारी के लिये देखें आस्रव - 1।