निस्संगत्वात्मभावना
From जैनकोष
गृहस्थ की त्रेपन क्रियाओं में तीसवीं क्रिया । इसमें अपना संपूर्ण भार किसी सुयोग्य शिष्य को सौंपकर साधु अकेले विहार करते हुए अपनी आत्मा को सब प्रकार के परिग्रह से रहित मानता है । ऐसा साधु प्रवचन आदि में भी राग छोड़कर निर्ममत्व की भावना से एकाग्रबुद्धि होता है और चारित्रिक शुद्धि प्राप्त करता है । महापुराण 38.59, 175-177