परिचारक
From जैनकोष
भगवती आराधना/647,648,671 पियधम्मा दिढधम्मा संवेगावज्जभीरुणो धीरा। छंदण्हू पच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विदण्हू। 647। कप्पा-कप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदत्था भयवंता अडदालीसं तु णिज्जवया। 648। जो जारिसओ कालो भरदेरावदेसु होइ वासेसु। ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया। 671। = जिनका धर्म पर गाढ़ प्रेम है और जो स्वयं धर्म में स्थिर हैं। संसार से और पाप से जो हमेशा भययुक्त है धैर्यवान् और क्षपक के अभिप्राय को जाननेवाले हैं, प्रत्याख्यान के ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपक की शुश्रूषा करने योग्य माने गये हैं। 647। ये आहारपानादिक पदार्थ योग्य हैं, इनका ज्ञान परिचारकों को होना आवश्यक है। क्षपक का चित्त समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त ग्रंथ को जाननेवाले, आगमज्ञ, स्वयं और पर का उद्धार करने में कुशल, तथा जिनकी जग में कीर्ति है ऐसे परिचायक यति हैं। 648। भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में समस्त देशों में जो जैसा काल वर्तता है, उसके अनुसार निर्यापक समझना चाहिए। 671।
- सल्लेखनागत क्षपक की सेवा में परिचारकों की संख्या का नियम- देखें सल्लेखना - 5।