पौरुषेय
From जैनकोष
आगम का पौरुषेय व अपौरुषेत्वपना
(धवला पुस्तक 1/1,1,22/196/5)
विगताशेषदोषावरणत्वात् प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् अन्यथास्यापौरुषेयत्वस्यापि पौरुषेयवदप्रामाण्यप्रसंगात्
= जिसने संपूर्ण भावकर्म व द्रव्यकर्म को दूर कर देने से संपूर्ण वस्तु विषयक ज्ञान को प्राप्त कर लिया है वही आगम का व्याख्याता हो सकता है। ऐसा समझना चाहिए। अन्यथा पौरुषेयत्व रहित इस आगम को भी पौरुषेय आगम के समान अप्रमाणता का प्रसंग आ जायेगा।
(धवला पुस्तक 3/1,2,2/10-11/12)
आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयं विदुः। त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥10॥ रागाद्वा द्वेषादा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्युनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यनृतकारणं नास्ति।
= आप्त के वचन को आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरादि अठारह दोषों का नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो त्यक्त दोष होता है, वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलने का कोई कारण ही संभव नहीं है ॥10॥ राग से, द्वेष से, अथवा मोह से असत्य वचन बोला जाता है, परंतु जिसके ये रागादि दोष नहीं हैं उसके असत्य वचन बोलने का कोई कारण भी नहीं पाया जाता है ॥10॥
( धवला पुस्तक 10/4,2,460/280/2)
(राजवार्तिक अध्याय 1/20/7/71/32)
ततश्च पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यं स्याद्।...न चापुरुषकृतित्वं प्रमाण्यकारणम्; चौर्याद्युपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसंगात्। अनित्यस्य च प्रत्यक्षादेः प्रामाण्ये को विरोधः।
= प्रश्न - पुरुषकृत होने के कारण श्रुत अप्रमाण होगा?
उत्तर - अपौरुषैयता प्रमाणता का कारण नहीं है। अन्यथा चोरी आदि के उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदि प्रणेता ज्ञात नहीं है। त्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य हैं पर इससे उनकी प्रमाणता में कोई कसर नहीं आती है।
(धवला पुस्तक 13/5,5,50/286/2)
अभूत इति भूतम्, भवनीति भव्यम्, भविष्यतीति भविष्यत्, अतीतानागत-वर्तमानकालेष्यस्तीत्यर्थः। एवं सत्यागम्यस्य नित्यत्वम्। सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत्-न, वाच्य-वाचकभावेनवर्ण-पद-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात्।
= आगम अतीत काल में था इसलिए उसकी भूत संज्ञा है, वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है और भविष्यत् काल मे रहेगा इसलिए उसकी भविष्य संज्ञा है और आगम अतीत, अनागत और वर्तमान काल में है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार वह आगम नित्य है।
प्रश्न - ऐसा होने पर आगम को अपौरुषेयता का प्रसंग आता है।
उत्तर - नहीं, क्योंकि वाच्य वाचक भाव से तथा वर्ण, पद व पंक्तियों के द्वारा प्रवाह रूप से आने के कारण आगम को अपौरुषेय स्वीकार किया गया है।
(पंचाध्यायी / श्लोक 736)
वेदाः प्रमाणमत्र तु हेतुः केवलमपौरुषेयत्वम्। आगम गोचरतया हेतोरन्याश्रितादहेतुरत्वम् ॥736॥
= वेद प्रमाण है यहाँ पर केवल अपौरुषेयपना हेतु है, किंतु अपौरुषेय रूप हेतु को आगम गोचर होने से अन्याश्रित है इस लिए वह समीचीन हेतु नहीं है।
- देखें आगम - 6.6।