बोधपाहुड गाथा 16
From जैनकोष
(५) आगे जिनबिंब का निरूपण करते हैं -
जिणबिंबं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च ।
जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ।।१६।।
जिनबिंब ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च ।
यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ।।१६।।
जो कर्मक्षय के लिए दीक्षा और शिक्षा दे रहे ।
वे वीतरागी ज्ञानमय आचार्य ही जिनबिंब हैं ।।१६ ।।
अर्थ - जिनबिंब कैसा है ? ज्ञानमयी है, संयम से शुद्ध है, अतिशयकर वीतराग है, कर्म के क्षय का कारण और शुद्ध है - इसप्रकार की दीक्षा और शिक्षा देता है ।
भावार्थ - जो `जिन' अर्थात् अरहन्त सर्वज्ञ का प्रतिबिंब कहलाता है । उसकी जगह उसके जैसा ही मानने योग्य हो, इसप्रकार आचार्य हैं वे दीक्षा अर्थात् व्रत का ग्रहण और शिक्षा अर्थात् व्रत का विधान बताना, ये दोनों भव्यजीवों को देते हैं । इसलिए १. प्रथम तो वह आचार्य ज्ञान मयी हो, जिनसूत्र का उनको ज्ञान हो, ज्ञान बिना यथार्थ दीक्षा-शिक्षा कैसे हो ? और २. आप संयम से शुद्ध हो, यदि इसप्रकार न हो तो अन्य को भी संयम से शुद्ध नहीं करा सकते । ३. अतिशय-विशेषतया वीतराग न हो तो कषायसहित हो तब दीक्षा, शिक्षा यथार्थ नहीं दे सकते हैं, अत: इसप्रकार आचार्य को जिन के प्रतिबिंब जानना ।।१६।।