बोधपाहुड गाथा 18
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं ।
अरहन्तमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ।।१८।।
तपोव्रतगुणै: शुद्ध: जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् ।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ।।१८।।
व्रततप गुणों से शुद्ध सम्यक्भाव से पहिचानते ।
दें दीक्षा शिक्षा यही मुद्रा कही है अरिहंत की ।।१८।।
अर्थ - जो तप, व्रत और गुण अर्थात् उत्तरगुणों से शुद्ध हों, सम्यग्ज्ञान से पदार्थो को यथार्थ जानते हों, सम्यग्दर्शन से पदार्थो को देखते हों, इसीलिए जिनके शुद्ध सम्यक्त्व है - इसप्रकार जिनबिंब आचार्य है । यही दीक्षा-शिक्षा की देनेवाली अरहंत की मुद्रा है ।
भावार्थ - इसप्रकार जिनबिंब है वह जिनमुद्रा ही है, इसप्रकार जिनबिंब का स्वरूप कहा है ।।१८।।