बोधपाहुड गाथा 29
From जैनकोष
इसप्रकार ही कथन आगे करते हैं । प्रथम ही नाम को प्रधान करके कहते हैं -
दंसण अणंत णाणे मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण ।
णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ।।२९।।
दर्शनं१ अनंतं ज्ञानं मोक्ष: नष्टानष्टकर्मबंधेन ।
निरुपमगुणमारूढ: अर्हन् ईदृशो भवति ।।२९।।
अनंत दर्शन ज्ञानयुत आरूढ़ अनुपम गुणों में ।
कर्माष्ट बंधन मुक्त जो वे ही अरे अरिहंत हैं ।।२९।।
अर्थ - जिसके दर्शन और ज्ञान ये तो अनन्त हैं, घातिकर्म के नाश से सब ज्ञेय पदार्थो को देखना व जानना है, अष्ट कर्मो का बंध नष्ट होने से मोक्ष है । यहाँ सत्त्व की और उदय की विवक्षा न लेना, केवली के आठों ही कर्म का बंध नहीं है । यद्यपि साता वेदनीय का आस्रव मात्र बंध सिद्धान्त में कहा है तथापि स्थिति अनुभागरूप बंध नहीं है, इसलिए अबंधतुल्य ही है । इसप्रकार आठों ही कर्मबंध के अभाव की अपेक्षा भावमोक्ष कहलाता है और उपमारहित गुणों से आरूढ़ हैं-सहित हैं । इसप्रकार गुण छद्मस्थ में कहीं भी नहीं है, इसलिए जिसमें उपमारहित गुण हैं, ऐसे अरहंत होते हैं ।
भावार्थ - केवल नाममात्र ही अरंहत हो उसको अरहंत नहीं कहते हैं । इसप्रकार के गुणों से सहित हो उसको अरहंत कहते हैं ।