बोधपाहुड गाथा 41
From जैनकोष
आगे भाव ही का विशेष कहते हैं -
सम्मद्दंसणि पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया ।
सम्मत्तगुणविशुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो ।।४१।।
सम्यग्दर्शनेन पश्यति ज्ञानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् ।
सम्यक्त्वगुणविशुद्ध: भाव: अर्हत: ज्ञातव्य: ।।४१।।
सद्दृष्टि से सम्पन्न अर सब द्रव्य-गुण-पर्याय को ।
जो देखते अर जानते जिननाथ वे अरिहंत हैं ।।४१।।
अर्थ - `भाव अरहंत' सम्यग्दर्शन से तो अपने को तथा सबको सत्तामात्र देखते हैं, इसप्रकार जिनको केवलदर्शन है, ज्ञान से सब द्रव्य-पर्यायों को जानते हैं, इसप्रकार जिनको केवलज्ञान है, जिनको सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है, इसप्रकार अरहंत का भाव जानना ।
भावार्थ - अरहंतपना घातियाकर्म के नाश से होता है । मोहकर्म के नाश से सम्यक्त्व और कषाय के अभाव से परमवीतरागता सर्वप्रकार निर्मलता होती है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के नाश से अनंतदर्शन-अनंतज्ञान प्रकट होता है, इनसे सब द्रव्य-पर्यायों को एक समय में प्रत्यक्ष देखते हैं और जानते हैं । द्रव्य छह हैं, उनमें जीवद्रव्य की संख्या अनंतानंत है, पुद्गलद्रव्य उससे अनंतानंतगुणे हैं, आकाशद्रव्य एक है, वह अनंतानंत प्रदेशी है, इसके मध्य में सब जीव पुद्गल असंख्यात प्रदेश में स्थित हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य - ये दोनों असंख्यातप्रदेशी हैं, इनसे आकाश के लोक-अलोक का विभाग है, उसी लोक में ही कालद्रव्य के असंख्यात कालाणु स्थित हैं । इन सब द्रव्यों के परिणामरूप पर्याय हैं वे एक-एक द्रव्य के अनंतानंत हैं, उनको कालद्रव्य का परिणाम निमित्त है, उसके निमित्त से क्रमरूप होता समयादिक `व्यवहारकाल' कहलाता है । इसकी गणना से अतीत, अनागत, वर्तान द्रव्यों की पर्यायें अनंतानंत हैं, इन सब द्रव्यपर्यायों को अरहंत का दर्शन-ज्ञान एकसमय में देखता और जानता है, इसीलिए अरहंत को सर्वदर्शीसव र्ज्ञ कहते हैं ।
भावार्थ - इसप्रकार अरहंत का निरूपण चौदह गाथाओं में किया । प्रथम गाथा में नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण, पर्याय सहित च्यवन, आगति, संपत्ति ये भाव अरहंत को बतलाते हैं । इसका व्याख्यान नामादि कथन में सर्व ही आ गया, उसका संक्षेप भावार्थ लिखते हैं -
गर्भकल्याणक - प्रथम गर्भकल्याणक होता है, गर्भ में आने के छह महीने पहिले इन्द्र का भेजा हुआ कुबेर, जिस राजा की रानी के गर्भ में तीर्थंकर आयेंगे, उसके नगर की शोभा करता है, रत्नमयी सुवर्णयी मन्दिर बनाता है, नगर के कोट, खाई, दरवाजे, सुन्दर वन, उपवन की रचना करता है, सुन्दर भेषवाले नर-नारी नगर में बसाता है, नित्य राजमन्दिर पर रत्नों की वर्षा होती रहती है, तीर्थंकर का जीव जब माता के गर्भ में आता है, तब माता को सोलह स्वप्न आते हैं, रुचकवरद्वीप में रहनेवाली देवांगनायें माता की नित्य सेवा करती हैं, ऐसे नौ महीने पूरे होने पर प्रभु का तीन ज्ञान और दस अतिशय सहित जन्म होता है, तब तीन लोक में आनंदमय क्षोभ होता है, देवों के बिना बजाए बाजे बजते हैं, इन्द्र का आसन कंपायमान होता है, तब इन्द्र प्रभु का जन्म हुआ जानकर स्वर्ग से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है, सर्व चार प्रकार के देव-देवी एकत्र होकर आते हैं, शची (इन्द्राणी) माता के पास जाकर गुप्तरूप से प्रभु को ले आती हैं, इन्द्र हर्षित होकर हजार नेत्रों से देखता है । फिर सौधर्म इन्द्र, बालक शरीरी भगवान को अपनी गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरुपर्वत पर जाता है, ईशान इन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार, महेन्द्र इन्द्र चंवर ढोरते हैं, मेरु के पांडुकवन की पांडुकशिला पर सिंहासन के ऊपर प्रभु को विराजमान करते हैं, सब देव क्षीरसमुद्र में एक हजार आठ कलशों में जल लाकर देव-देवांगना गीत नृत्य वादित्र द्वारा बड़े उत्साह सहित प्रभु के मस्तक पर कलश ढारकर जन्मकल्याणक का अभिषेक करते हैं, पीछे शंृगार, वस्त्र, आभूषण पहिनाकर माता के मंदिर में लाकर माता को सौंप देते हैं, इन्द्रादिक देव अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं, कुबेर सेवा के लिए रहता है । तदनन्तर कुमार अवस्था तथा राज्य अवस्था भोगते हैं । उसमें मनोवांछित भोग भोगकर फिर कुछ वैराग्य का कारण पाकर संसार-देह-भोगों से विरक्त हो जाते हैं । तब लौकान्तिक देव आकर, वैराग्य को बढ़ानेवाली प्रभु की स्तुति करते हैं, फिर इन्द्र आकर `तपकल्याणक' करता है । पालकी में बैठाकर बड़े उत्सव से वन में ले जाता है, वहाँ प्रभु पवित्र शिला पर बैठकर पंचमुष्टि से लोचकर पंच महाव्रत अंगीकार करते हैं, समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बररूप धारण कर ध्यान करते हैं, उसीसमय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है । फिर कुछ समय व्यतीत होने पर तप के बल से घातिकर्म की प्रकृति ४७, अघाति कर्मप्रकृति १६, इसप्रकार त्रेसठ प्रकृति का सत्ता में से नाशकर केवलज्ञान उत्पन्न कर अनन्तचतुष्टयरूप होकर क्षुधादिक अठारह दोषों से रहित अरहंत होते हैं । फिर इन्द्र आकर समवसरण की रचना करता है सो आगमोक्त अनेक शोभासहित मणिसुवर्णयी कोट, खाई, वेदी चारों दिशाओं में चार दरवाजे, मानस्तंभ, नाट्यशाला, वन आदि अनेक रचना करता है । उसके बीच सभामण्डप में बारह सभा, उनमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, तिर्यंच बैठते हैं । प्रभु के अनेक अतिशय प्रकट होते हैं । सभामंडप के बीच तीन पीठ पर गंधकुटी के बीच सिंहासन पर कमल के ऊपर अंतरीक्ष प्रभु विराजते हैं और आठ प्रातिहार्य युक्त होते हैं । वाणी खिरती है, उसको सुनकर गणधर द्वादशांग शास्त्र रचते हैं । ऐसे केवलज्ञानकल्याणक का उत्सव इन्द्र करता है । फिर प्रभु विहार करते हैं । उनका बड़ा उत्सव देव करते हैं । कुछ समय बाद आयु के दिन थोड़े रहने पर योगनिरोध कर अघातिकर्म का नाशकर मुक्ति पधारते हैं, तत्पश्चात् शरीर का अग्नि संस्कार कर इन्द्र उत्सवसहित `निर्वाण कल्याणक' महोत्सव करता है । इसप्रकार तीर्थंकर पंचकल्याणक की पूजा प्राप्त कर, अरहंत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं - ऐसा जानना ।।४१।।