बोधपाहुड गाथा 47
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
सत्तूमित्ते य समा पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा ।
तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।४७।।
शत्रौ मित्रे च समा प्रशंसानिन्दाsलब्धिलब्धिसमा ।
तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।४७।।
जिनवर कही है प्रव्रज्या समभाव लाभालाभ में ।
अर कांच-कंचन मित्र-अरि निन्दा-प्रशंसा भाव में ।।४७।।
अर्थ - जिसमें शत्रु-मित्र में समभाव है, प्रशंसा-निन्दा में, लाभ-अलाभ में और तृणक ंचन में समभाव है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।
भावार्थ - जैनदीक्षा में राग-द्वेष का अभाव है । शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ और तृण-कंचन में समभाव है । जैनमुनियों की दीक्षा इसप्रकार ही होती है ।।४७।।