बोधपाहुड गाथा 55
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
तिलतुसमत्तणिमित्तसम बाहिरग्गंधसंगहो णत्थि ।
पव्वज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं ।।५५।।
तिलतुषमात्रनिमित्तसम: बाह्यग्रंथसंग्रह: नास्ति ।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभि: ।।५५।।
जिसमें परिग्रह नहीं अन्तर्बाह्य तिलतुषमात्र भी ।
सर्वज्ञ के जिनमार्ग में जिनप्रव्रज्या ऐसी कही ।।५५।।
अर्थ - जिस प्रव्रज्या में तिल के तुषमात्र के संग्रह का कारण इसप्रकार भावरूप इच्छा अर्थात् अंतरंग परिग्रह और उस तिल के तुष मात्र बाह्य परिग्रह का संग्रह नहीं है इसप्रकार की प्रव्रज्या जिसप्रकार सर्वज्ञदेव ने कही है, उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रव्रज्या नहीं है, ऐसा नियम जानना चाहिए । श्वेताम्बर आदि कहते हैं कि अपवादमार्ग में वस्त्रादिक का संग्रह साधु को कहा है, वह सर्वज्ञ के सूत्र में तो नहीं कहा है । उन्होंने कल्पित सूत्र बनाये हैं, उनमें कहा है, वह कालदोष है ।