बोधपाहुड गाथा 57
From जैनकोष
आगे अन्य विशेष कहते हैं -
पसुहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ ।
सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।५७।।
पशुहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथा: ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।५७।।
पशु-नपुंसक-महिला तथा कुस्शीलजन की संगति ।
ना करें विकथा ना करें रत रहें अध्ययन-ध्यान में ।।५७।।
अर्थ - जिस प्रव्रज्या में पशु-तिर्यंच, महिला (स्त्री), षंढ (नपुंसक) इनका संग तथा कुशील (व्यभिचारी) पुरुष का संग नहीं करते हैं; स्त्री कथा, राज कथा, भोजन कथा और चोर इत्यादि की कथा जो विकथा है, उनको नहीं करते हैं तो क्या करते हैं ? स्वाध्याय अर्थात् शास्त्र जिनवचनों का पठन-पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान इनसे युक्त रहते हैं । इसप्रकार प्रव्रज्या जिनदेव ने कही है ।
भावार्थ - जिनदीक्षा लेकर कुसंगति करे, विकथादिक करे और प्रमादी रहे तो दीक्षा का अभाव हो जाय, इसलिए कुसंगति निषिद्ध है । अन्य भेष की तरह यह भेष नहीं है । यह मोक्षमार्ग है, अन्य संसारमार्ग है ।।५७।।