बोधपाहुड गाथा 62
From जैनकोष
आगे भद्रबाहु स्वामी की स्तुतिरूप वचन कहते हैं -
बारसअंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं ।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ ।।६२।।
द्वादशांगविज्ञान: चतुर्दशपूर्वांग विपुलविस्तरण: ।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहु: गमकगुरु: भगवान् जयतु ।।६२।।
अंग बारह पूर्व चउदश के विपुल विस्तार विद ।
श्री भद्रबाहु गमकगुरु जयवंत हो इस जगत में ।।६२।।
अर्थ - भद्रबाहु नाम आचार्य जयवंत होवें, कैसे हैं ? जिनको बारह अंगों का विशेष ज्ञान है, जिनको चौदह पूर्वो का विपुल विस्तार है, इसीलिए श्रुतज्ञानी हैं, पूर्ण भावज्ञान सहित अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, `गमक गुरु' है जो सूत्र के अर्थ को प्राप्त कर उसीप्रकार वाक्यार्थ करे उसको `गमक' कहते हैं, उनके भी गुरुओं में प्रधान हैं, भगवान हैं - सुरासुरों से पूज्य हैं, वे जयवंत होवें । इसप्रकार कहने में उनको स्तुतिरूप नमस्कार सूचित है । `जयति' धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थ में है वह सर्वोत्कृष्ट कहने से नमस्कार ही आता है ।
भावार्थ - भद्रबाहुस्वामी पंचम श्रुतकेवली हुए । उनकी परम्परा से शास्त्र का अर्थ जानकर यह बोधपाहुड ग्रन्थ रचा गया है, इसलिए उनको अंतिम मंगल के लिए आचार्य ने स्तुतिरूप नमस्कार किया है । इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है ।।६२।।
( छप्पय ) प्रथम आयतन१ दुतिय चैत्यगृह२ तीजी प्रतिमा३ । दर्शन४ अर जिनबिंब५ छठो जिनमुद्रा६ यतिमा ।।
ज्ञान७ सातमूं देव८ आठूं नवमूं तीरथ९ । दसमूं है अरहन्त१० ग्यारमूं दीक्षा११ श्रीपथ ।।
इम परमारथ मुनिरूप सति अन्यभेष सब निंद्य है । व्यवहार धातुपाषाणमय आकृति इनिकी वंद्य है ।।१।।
( दोहा ) भयो वीर जिनबोध यहु, गौतमगणधर धारि । बरतायो १पंचमगुरु, नमूं तिनहिं मद छारि ।।२।।
इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित बोधपाहुड की जयपुरनिवासि पण्डित जयचन्द्रछाबड़ाकृत देशभाषामयवचनिका समाप्त ।।४।।