बोधपाहुड गाथा 8
From जैनकोष
(२) आगे चैत्यगृह का निरूपण करते हैं -
बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च ।
पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ।।८।।
बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यत् च ।
पंचमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं ज्ञानीहि चैत्यगृहम् ।।८।।
जानते मैं ज्ञानमय परजीव भी चैतन्यमय ।
सद्ज्ञानमय वे महाव्रतधारी मुनी ही चैत्यगृह ।।८।।
अर्थ - जो मुनि `बुद्ध' अर्थात् ज्ञानमयी आत्मा को जानता हो, अन्य जीवों को `चैत्य' अर्थात् चेतनास्वरूप जानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पाँच महाव्रतों से शुद्ध हो, निर्मल हो, उस मुनि को हे भव्य ! तू `चैत्यगृह' जान ।
भावार्थ - जिसमें अपने को और दूसरे को जाननेवाला ज्ञानी निष्पाप-निर्मल इसप्रकार `चैत्य' अर्थात् चेतनास्वरूप आत्मा रहता है, वह `चैत्यगृह' है । इसप्रकार का चैत्यगृह संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदि के मंदिर को `चैत्यगृह' कहना व्यवहार है ।।८।।