भावपाहुड गाथा 10
From जैनकोष
आगे तिर्यंचगति के दु:खों को कहते हैं -
खणणुत्तावणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च ।
पत्तो सि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ।।१०।।
खननोत्तापनज्वालन १वेदनविच्छेदनानिरोधं च ।
प्राप्तोsसि भावरहित: तिर्यग्गतौ चिरं कालं ।।१०।।
तिर्यंचगति में खनन उत्तापन जलन अर छेदना ।
रोकना वध और बंधन आदि दुख तूने सहे ।।१०।।
अर्थ - हे जीव ! तूने तिर्यंचगति में खनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन, निरोधन इत्यादि दु:ख सम्यग्दर्शन आदि भावरहित होकर बहुतकालपर्यन्त प्राप्त किये ।
भावार्थ - इस जीव ने सम्यग्दर्शनादि भाव बिना तिर्यंच गति में चिरकालतक दु:ख पाये -
पृथ्वीकाय में कुदाल आदि खोदने द्वारा दु:ख पाये, जलकाय में अग्नि से तपना, ढोलना इत्यादि द्वारा दु:ख पाये, अग्निकाय में जलाना, बुझाना आदि द्वारा दु:ख पाये, पवनकाय में भारे से हलका चलना, फटना आदि द्वारा दु:ख पाये, वनस्पतिकाय में फाड़ना, छेदना, राँधना आदि द्वारा दु:ख पाये, विकलत्रय में दूसरे से रुकना, अल्प आयु से मरना इत्यादि द्वारा दु:ख पाये, पंचेन्द्रिय पशु-पक्षी-जलचर आदि में परस्पर घात तथा मनुष्यादि द्वारा वेदना, भूख, तृषा, रोकना, वध-बंधन इत्यादि द्वारा दु:ख पाये । इसप्रकार तिर्यंचगति में असंख्यात अनन्तकालपर्यन्त दु:ख पाये ।।१०।।