भावपाहुड गाथा 100
From जैनकोष
आगे भाव ही के फल को विशेषरूप से कहते हैं -
पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं ।
दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए ।।१००।।
प्राप्नुवंति भावश्रमणा: कल्याणपरंपरा: सौख्यानि ।
दु:खानि द्रव्यश्रमणा: नरतिर्यक्कुदेवयोनौ ।।१००।।
तिर्यंच मनुज कुदेव होकर द्रव्यलिंगी दु:ख लहें ।
पर भावलिंगी सुखी हों आनन्दमय अपवर्ग में ।।१००।।
अर्थ - जो भावश्रमण हैं, भावमुनि हैं, वे जिसमें कल्याण की परम्परा है - ऐसे सुखों को पाते हैं और जो द्रव्यश्रमण हैं वे तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनि में दु:खों को पाते हैं ।
भावार्थ - भावमुनि सम्यग्दर्शन सहित हैं वे तो सोलहकारण भावना भाकर गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण, पंच कल्याणक सहित तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष पाते हैं और जो सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमुनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य, कुदेव योनि पाते हैं । यह भाव के विशेष से फल का विशेष है ।।१००।।