भावपाहुड गाथा 101
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि अशुद्ध भाव से अशुद्ध ही आहार किया, इसलिए दुर्गति ही पाई -
छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण ।
पत्तो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ।।१०१।।
षट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन ।
प्राप्त: असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवश: ।।१०१।।
अशुद्धभावों से छियालिस दोष दूषित असन कर ।
तिर्यंचगति में दुख अनेकों बार भोगे विवश हो ।।१०१।।
अर्थ - हे मुने ! तूने अशुद्धभाव से छियालीस दोषों से दूषित अशुद्ध अशन (आहार) ग्रस्या (खाया) इसकारण से तिर्यंचगति में पराधीन होकर महान (बड़े) व्यसन (कष्ट) को प्राप्त किया ।
भावार्थ - मुनि छियालीस दोषरहित शुद्ध आहार करता है, बत्तीस अंतराय टालता है, चौदह मलदोषरहित करता है सो जो मुनि होकर सदोष आहार करे तो ज्ञात होता है कि इसके भाव भी शुद्ध नहीं हैं । उसको यह उपदेश है कि हे मुने ! तूने दोषसहित अशुद्ध आहार किया, इसलिए तिर्यंचगति में पहिले भ्रमण किया और कष्ट सहा, इसलिए भाव शुद्ध करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण न करे । छियालीस दोषों में सोलह तो उद्गम दोष हैं, वे आहार के बनने के हैं, ये श्रावक के आश्रित हैं । सोलह उत्पादन दोष हैं, ये मुनि के आश्रित हैं । दस दोष एषणा के हैं, ये आहार के आश्रित हैं । चार प्रमाणादि के हैं । इनके नाम तथा स्वरूप `मूलाचार', `आचारसार' ग्रंथ से जानिये ।।१०१।।