भावपाहुड गाथा 102
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धीं दप्पेणsधी पभुत्तूण ।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत ।।१०२।।
सचित्तभक्तपानं गृद्धया दर्पेण अधी: प्रभुज्य ।
प्राप्तोsसि तीव्रदु:खं अनादिकालेन त्वं चिन्तय ।।१०२।।
अतिगृद्धता अर दर्प से रे सचित्त भोजन पान कर ।
अति दु:ख पाये अनादि से इसका भी जरा विचार कर ।।१०२।।
अर्थ - हे जीव ! तू दुर्बुद्धि (अज्ञानी) होकर अतिचार सहित तथा अतिगर्व (उद्धतपने) से सचित्त भोजन तथा पान, जीवसहित आहार पानी लेकर अनादिकाल से तीव्र दु:ख को पाया, उसका चिन्तवन कर-विचार कर ।
भावार्थ - मुनि को उपदेश करते हैं कि अनादिकाल से जबतक अज्ञानी रहा जीव का स्वरूप नहीं जाना तबतक सचित्त (जीव सहित) आहार पानी करते हुए संसार में तीव्र नरकादिक के दु:ख को पाया । अब मुनि होकर भाव शुद्ध करके सचित्त आहार पानी मत करे, नहीं तो फिर पूर्ववत् दु:ख भोगेगा ।।१०२।।