भावपाहुड गाथा 113
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि बाह्य उत्तरगुण की प्रवृत्ति भी भाव शुद्ध करके करना -
बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ।
पालहि भावविशुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो ।।११३।।
बहि:शयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान् ।
पालय भावविशुद्ध: पूजालाभं न ईहमान: ।।११३।।
भावशुद्धिपूर्वक पूजादि लाभ न चाहकर ।
निज शक्ति से धारण करो आतपन आदि योग को ।।११३।।
अर्थ - हे मुनिवर ! तू भाव से विशुद्ध होकर पूजालाभादिक को नहीं चाहते हुए बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमूलयोग धारण करना इत्यादि उत्तरगुणों का पालन कर ।
भावार्थ - शीतकाल में बाहर खुले मैदान में सोना-बैठना, ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धरना, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे योग धरना जहाँ बूँदे वृक्ष पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें । इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा बहुत है इनको आदि लेकर यह उत्तरगुण हैं, इनका पालन भी भाव शुद्ध करके करना । भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिए भाव शुद्ध करके करने का उपदेश है । ऐसा न जानना कि इसको बाह्य में करने का निषेध करते हैं । इनको भी करना और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है । केवल पूजालाभादि के लिए अपना बड़प्पन दिखाने के लिए करे तो कुछ फल (लाभ) की प्राप्ति नहीं है ।।११३।।